झाँसी। मनरेगा एक बार फिर संकट में फंस गई है। सरकार की उदासीनता ने इस अति महत्वपूर्ण अधिनियम को लील लिया है। 100 दिन का रोजगार देने का दंभ भरने वाली इस योजना में मजदूरों को देने के लिए पैसा नहीं है। किसी तरह दो जून की रोटी की जुगाड़ करने वाले मजदूरों ने अब मनरेगा से कन्नी काटना शुरू कर दी है और कई गांवों में काम ठप पड़े है। ये भी पढ़ें - अपने राज्य - शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
यूपीए सरकार ने गांव के मजदूरों का पलायन रोकने के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम लागू किया था। यह योजना इतनी सफल हुई कि पंजीकरण कराने वाले मजदूरों को काम देना तक मुश्किल हो गया। सभी काम मांगने वालों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए प्रति जॉबकार्ड साल भर में अधिकतम 100 दिन रोजगार देने का प्रावधान रखा गया। यही नहीं यह नियम भी बनाया गया कि काम खत्म होने के अधिकतम 15 दिन के भीतर मजदूरों का भुगतान कर दिया जाए। मनरेगा के कुल बजट का 60 प्रतिशत हिस्सा मजदूरी पर खर्च किया जा सकता है। इसमें वृद्धि भी हो सकती है, लेकिन सामग्री बजट पर 40 फीसदी से ज्यादा खर्च नहीं किया जा सकता। नतीजा यह हुआ कि गांवों से पलायन थम गया। केंद्र में सत्ता बदलते ही सबसे पहली मार मनरेगा पर पड़ी। मोदी सरकार ने इस अधिनियम के लिए तिजोरी नहीं खोली। बाद में हो हल्ला मचने पर बजट रिलीज किया गया तब कहीं जाकर मजदूरों का भुगतान हो सका। कुछ समय तक मनरेगा पटरी पर रही, लेकिन अब फिर संकट छा गया है। करीब दो माह से शासन ने लेबर बजट रिलीज नहीं किया है जिससे मजदूरों का भुगतान लटक गया है।
वर्तमान में जिले में 1.55 लाख जॉबकार्ड धारक पंजीकृत हैं और इसमें से 18 हजार मनरेगा में काम कर रहे हैं। उन्हें 175 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान करना है। पहले एक साल में 28 लाख मानव दिवस सृजित करने का लक्ष्य था जिसे बढ़ाकर अब 55 लाख मानव दिवस प्रतिवर्ष कर दिया गया है। इस हिसाब से 26 लाख रुपये प्रतिदिन का भुगतान करना है जो दो माह में 15.60 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। हालांकि, मनरेगा सेल लगातार शासन से पत्राचार कर रहा है लेकिन अब तक कोई असर नहीं हुआ। इससे मजदूरों ने मनरेगा की परियोजनाओं पर काम करना बंद कर दिया है और काम करने के लिए शहरों की ओर पलायन कर रहे है।
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