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सियाराम की याददाश्त इतनी अच्छी है कि एक बार किसी को चीज को बनाते देख
ले तो उसे वह हूबहू बना लेता है। समोसा, नमकपारा और चाय के स्वाद की तो
बात ही निराली है। वह अपने काम की बदौलत 1000 से 800 रुपये हर दिन कमा लेता
है।
उसके पिता सोमदत्त विश्वकर्मा का कहना है, "सियाराम जब डेढ़
साल का हुआ, तब उसकी दिव्यांगता का पता चला। वह न सुन सकता है और न ही बोल
सकता है। गोंडा, फैजाबाद और लखनऊ जैसे शहरों में इलाज कराया, लेकिन कोई
फायदा नहीं हुआ। थक-हार कर हम घर बैठ गए।"
परिजनों की मानें तो
सियाराम पांच वर्ष की अवस्था से ही काफी सक्रिय था। दिनोंदिन उसकी प्रतिभा
निखरती गई। 10 साल की उम्र से वह बनते हुए पकवानों और अन्य चीजों को हूबहू
वैसा ही बनाने लगा।
मूक-बधिर सियाराम की देखादेखी अन्य दिव्यांगों
ने भी काम करना शुरू किया है। दोनों पैरों से दिव्यांग अरविंद गांव में
ढाबली रखकर किराना का सामान बेच रहा है। मूक-बधिर राजकुमार ने ऊर्जस्वित
होकर दिहाड़ी शुरू कर दी है। बड़ा दरवाजा के बगल के गांव महादेवा के
मूक-बधिर सुद्धू ने आटा फैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया है।
इसी
तरह महादेवा के ही लालबाबू मूक-बधिर होने के बावजूद ट्रैक्टर चला रहा है
और धर्मेद्र वजीरगंज बाजार में दिहाड़ी का काम कर रहा है। (आईएएनएस)
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