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टोंक। आग उगलने वाली गर्मी में खरबूजे और तरबूज की अगर बात की जाए तो टोंक का नाम हर किसी बुजुर्ग की जबान पर खुद-ब-खुद आने से कोई नही रोक सकता, लेकिन कई दशको तक प्रदेश से लेकर दिल्ली तक अपनी मिठास के लिए प्रसिद्व रहे खरबूजे अब सिर्फ किस्से कहानियों तक ही सिमट कर रह गए हैं। टोंक में करीबन सौ साल पूर्व नवाबी दौर में अफगानिस्तान से खरबूजे के बीज लाकर टोंक की बनास नदी में लगाए गए थे, लेकिन अब यह सिर्फ याददास्त बन कर रह गए हैं। बीसलपुर बांध की नींव क्या रखी मानों खरबूजों की चिता की तैयारी शुरू हो गई और हुआ भी यही कि बीसलुर बांध बनने के साथ ही बनास नदी में खरबूजों की पैदावार बन्द सी हो गई। इतना ही नहीं बनास नदी के बजरी खनन से पहले टोंक में खरबूजों की खूब पैदावार होती थी, लेकिन समय की मार ऐसी पड़ी की अब बनास के पेटे में खरबूजे तो दूर, यहां हरियाली ढूंढना भी एक टेढ़ी खीर बन गया है।
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पहले टोंक में बोई जाने वाली खरबूजों की बाडियों की महक बनास के पुल से गुजरने वाले मुसाफि रों को अपनी तरफ आकर्षित करती थी। खरबूजे खरीदने दूर-दूर से लोग यहां आया करते थे और बडे ही चाव से खरबूजे खाकर खुद को तरोताजा महसूस करते थे। इतना ही नही टोंक के यह खरबूजे पडौसी मुल्कों तक में निर्यात किए जाते थे। लेकिन 90 के दशक में बीसलपुर बांध का निर्माण और बजरी का खनन शुरू हुआ तभी से खरबूजे की खेती बिलकुल बन्द हो गई और इससे जुडे 500 से भी ज्यादा परिवारों के लिए रोजी रोटी का संकट पैदा हो गया।
कहा जाता है कि टोंक के खरबूजे की मिठास को लेकर लोग इसकी मिठास के लिए प्रतियोगिताएं आयोजित कराते थे और सबसे ज्यादा मीठा खरबूजा निकलने पर इनाम भी दिया जाता था, लेकिन अब यह सब बातें पुराने लोगों की किस्से कहानियों तक ही सिमट कर रह गई हैं। वर्तमान मे जो खरबूजों की जो पैदावार हो रही है वह अपनी मिठास खो चुकी है। लोगो का कहना है कि सरकार के संरंक्षण से अगर नदियों को नदियों से जोडक़र एक बार फिर से बनास में पानी की आवक हो तो दम तोड़ चुकी खरबूजे की खेती को फिर से परवान चढ़ाया जा सकता है।
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