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दो जून की रोटी के लिए महिलाऐं हर रोज तय करती हैं खतरों का सफर

कोटा। जिंदगी से बड़ी पेट की आग होती है। पेट की खातिर एक आदमी दूसरे आदमी को मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। वहीं कुछ लोग पेट की आग की खातिर अपनी जान की परवाह किये बिना अक्सर अपने लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करते नजर आते हैं। ऐसा ही एक नजारा देखने को मिला है कोटा जिले के चम्बल नदी के किनारे बसे शिवपुरा इलाके में, जहां पर एक समुदाय के कुछ परिवार की महिलाऐं हर रोज अपने परिवार के पेट की आग को बुझाने की खातिर अपनी जान की परवाह किये बिना ट्यूब के सहारे चम्बल नदी को पार कर जंगलो में लकडियां लेने जाते हैं और शाम वापस लौट आती हैं।

खतरों से भरी इस चम्बल नदी को पार करना इनका शौक नहीं बल्कि इनकी मजबूरी बन चुकी है। ऐसा नहीं कि इन्हें इसका कोई खौफ नहीं हो, लेकिन क्या करें पापी पेट का जो सवाल है। शिक्षा नगरी में मजबूरी से जुड़ी यह हकीकत इस हर किसी के लिए किसी मिसाल से कम नहीं है।

कहते हैं कि जिंदगी बड़ी अनमोल होती है। लेकिन अपने बच्चों और अपने पेट की खातिर लोग इस अनमोल जिंदगी को भी दाव पर लगा देते हैं। शिवपुरा से निकलने वाली चम्बल नदी में रोजाना यहां की कई महिलाएं और छोटे-छोटे बच्चे अपना पेट पालने की खातिर ट्रकों की ट्यूब में हवा भरकर उसे चम्बल में डालकर हर रोज सुबह 8 बजे चम्बल के दूसरे सिरे पर जंगलों में पहुँचते हैं और वहां से लकड़ियाँ काटकर शाम को 4 बजे वापस फिर ट्यूब के सहारे इस किनारे पर आते हैं। ये परिवार उन लकड़ियों को जलाकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोजी-रोटी का इंतेजाम करते हैं।

यह परिवार सभी भील जाति के हैं जिन्हें राज्य सरकार ने एस.टी. का आरक्षण दिया हुआ है। लेकिन आरक्षण का फायदा भी इनको आज तक नहीं मिला है। यह अपना पेट पालने के खातिर पिछले कई वर्षों से रोजाना जान को जोखिम में डालते हैं।

इस चम्बल की गहराई करीब 130 फीट है और चौड़ाई लगभग 800 मीटर है। यदि यहां कोई डूब भी जाए तो उसका पता लगाने में ही हफ्तों लग जायेगें। साथ ही चम्बल नदी का यह इलाका घड़ियाल अभ्यारण क्षेत्र में आता है जिसमें सैंकड़ों की तादाद में बड़े-बड़े मगरमच्छ व घड़ियाल रहते हैं जो कभी भी इनको नुकसान पहुंचाने के लिए काफी हैं। लेकिन पेट की आग इन भय को इसलिए खत्म कर देती है क्यांेकि यह लकड़ी काटकर नहीं लायेंगे तो भूख से ही मर जायेंगे ।

खास बात ये हैकि इसमें से किसी भी महिला को तैरना तक नहीं आता जबकि इन महिलाओं के आधे पैर हमेशा पानी में डूबे रहते हैं। उसके बाद भी ये महिलाएं जोखिम भरा काम कई साल से करते आ रहे हैं। इनके द्वारा जुगाड़ की इस नाव में इस्तेमाल की जाने वाली ट्यूब कभी बीच नदी में पंचर हो जाए या कोई जलीय जीवजन्तु इनपर हमला बोल दे या फिर इनमें से किसी का बैलेंस गड़बड़ा जाये तो आप सोच सकते हैं की इसका खामियाजा इनको किस तरह से भुगतना पड़ सकता है।

भील परिवार से ताल्लुक रखने वाले रामश्वेर उनकी पत्नी जानकी के मुताबिक दो जून की रोटी के लिए यह संघर्ष हमेशा करना पड़ता है। अगर यह जुगाड़ नहीं कर पाएं तो बच्चे बिना खाना खाए सो जाते हैं। लेकिन यह अब आम बात हो गई है। उनका कहना है कि पेट के लिए जिंदगी का सौदा कर यह जोखिम उठाना अब उनकी मजबूरी बन चुका है।

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Web Title-For food women decide every day for the dangers travel in kota
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