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जयपुर। राष्ट्रीय पात्रता प्रवेश परीक्षा (नीट) का परिणाम आए अभी चार दिन ही हुए हैं और एक के बाद एक दो बच्चों ने आत्महत्या कर ली। दोनों घटनाएं राजस्थान की हैं। लगातार हो रही ऐसी घटनाओं के पीछे आखिर क्या कारण हैं, जो बच्चे परिस्थितियों का सामना नहीं कर पा रहे और आत्महत्या जैसा कदम उठा रहे हैं?
इस प्रश्न पर तीन बेटों की मॉं राधिका कहती हैं, एक बच्चे के लिए सबसे महत्वपूर्ण उसका परिवार होता है, जो हर हाल में रक्षा कवच की तरह काम करता है। परिवार ही उसे उसका अच्छा-बुरा और हर परिस्थिति में डटे रहना सिखाता है। लेकिन आज भौतिकतावादी युग में यह कवच शायद कमजोर पड़ने लगा है। माता पिता और बच्चों की महत्वाकांक्षाएं तो बढ़ी हैं, लेकिन आपसी बॉन्डिंग और समझ में कमी आई है। तभी तो कई बार माता पिता यह नहीं देखते कि उनके बच्चे की क्षमताएं क्या हैं, वे बस अंधी दौड़ में उतार देते हैं उसे मैदान में। बच्चा अपनी तरफ से प्रयास करता है, लेकिन कई बार सफल नहीं हो पाता और अवसाद का शिकार हो जाता है। तब वह कदम उठाता है आत्महत्या का। उस समय यदि कोई परिवारजन एक बार उसकी आंखों में आंखें डालकर कह दे – मैं हूं ना! तो शायद बच्चे का जीवन बच जाए। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
लेकिन कई बार ऐसा नहीं हो पाता है। और तब गीतकार प्रसून जोशी की वो पंक्तियां याद आती हैं -”भीड़ में, यूँ ना छोड़ो मुझे, घर लौट के भी आ ना पाऊँ माँ… ये शब्द हर उस संतान की मनोदशा को व्यक्त करते हैं, जो स्कूली शिक्षा समाप्त होते ही परिवार व समाज की दृष्टि में सयाना माना जाने लगता है और शामिल हो जाता है उस भीड़ में, जहॉं हर कोई डॉक्टर या इंजीनियर ही बनने निकला है। माता पिता कोचिंग संस्थानों की मोटी मोटी फीस भरते हैं इस आकांक्षा से कि अब उनका बच्चा मेडिकल या इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में सफल होकर ही घर लौटेगा। तब घर से दूर उस बच्चे पर दबाव बनता है माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का। ऐसे में कई बार तो सब कुछ ठीक होता है और कई बार सब कुछ फिसल जाता है हाथ से। दौसा में जिस बच्चे ने ट्रेन के आगे कूदकर जान दे दी, वह अपने माता पिता की इकलौती संतान था।
इस विषय पर जब कुछ अभिभावकों से बात की गई तो उनके विचार जानकर काफी राहत मिली कि प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने वाला हर बच्चा इस प्रकार के पारिवारिक-सामाजिक दबाव में नहीं है। जैसे, हाल ही नीट की परीक्षा देने वाली कनिष्का शर्मा की की मां ममता शर्मा ने कहा— “बेटी ने जीव विज्ञान लिया था। अच्छे नंबर आने से उत्साहित हो कर डॉक्टर बनने की इच्छा जताई तो हमने बच्ची की इच्छा का साथ दिया और उसे तैयारी करवाई। अपने ही शहर में वह कोचिंग भी गई, लेकिन उसका चयन नहीं हुआ। परन्तु अब बेटी ने स्वयं ही निर्णय लिया है कि वह नर्सिंग की तैयारी करेगी। मैं इस निर्णय में भी उसके साथ हूं। कुल मिलाकर बेटी की खुशी मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण है।”
इसी प्रकार रेखा जांगिड़ कहती हैं—”बच्चे अपनी मनमर्जी से विषय लेकर पढ़ाई कर रहे हैं। हम माता-पिता इन पर अपनी कोई इच्छा नहीं थोपते। बेटी भावना जांगिड़ ने बताया- पापा का फर्नीचर का घरेलू व्यवसाय है। अपने परिवार में विज्ञान विषय लेने वाली मैं पहली लड़की हूं। इस बार प्रवेश परीक्षा में नम्बर कम आए हैं। लेकिन एक अटैम्प्ट और करूंगी। भले ही इसके लिए एक वर्ष ड्रॉप करना पड़े।” यहां छात्रा की अपनी प्रतिबद्धता है और वह अपने ही शहर में परिवार के बीच रह कर पढ़ाई कर रही है। विफल भी हुई तो उस पर बाहरी लोगों का दबाव और ‘होमसिकनेस’ नहीं है।
इस संबंध में एकेडमिक काउंसलर अपेक्षा भारद्वाज से भी बात हुई। वह कहती हैं— “यदि छात्र पहले या दूसरे अटैम्प्ट में किसी प्रवेश परीक्षा में चयनित नहीं हो पाता है, तब परिवार की भूमिका बढ़ जाती है और महत्वपूर्ण हो जाती है कि वे समय और परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लें। जहां तक विफल होने पर आत्महत्या की घटनाओं का प्रश्न है, तो ऐसा कदम अक्सर वही बच्चे उठाते हैं, जिन पर अत्यधिक पारिवारिक या सामाजिक दबाव हो। जब बच्चे में क्षमता कम हो तब भी परिवार वाले बच्चे पर महत्वाकांक्षा का बोझ लादते हैं तो उन्हें मैं यही कहती हूं आप अपने बच्चे की प्रतिभा पहचानिए, हो सकता है कि वह अच्छा क्रिकेटर, फोटोग्राफर या सिंगर बन सकता हो। आजकल इस बारे में बहुत जागरूकता आ चुकी है। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में मैं ऐसे महत्वाकांक्षी अभिभावकों के साथ अलग से बात करती हूं। हम बच्चे के सामने ऐसी बात भी नहीं करते। माता-पिता को चाहिए कि बच्चे की कभी किसी से तुलना न करें। यहां तक कि सगे भाई बहनों के बीच भी नहीं। आवश्यक नहीं कि बड़े बेटे ने अच्छे अंक प्राप्त किए हों तो छोटा बेटा भी उतने ही अंक लाए। बच्चा पढ़ाई में औसत है तो क्या हुआ, उसमें कोई और प्रतिभा होगी। उसे पहचानें और उसी दिशा में आगे बढ़ाएं।”
दो डॉक्टर बच्चों की मॉं उषा कहती हैं, हमारी बॉन्डिंग बच्चे से ऐसी होनी चाहिए कि जब भी बच्चे को कोई गलत विचार आए, तो उसे लगे, नहीं! मैं ऐसा नहीं कर सकता। मेरे मां-पिता मुझसे कितना प्यार करते हैं, और वह अपने मन की सारी बातें आपको बता दे और आप भी ध्यानपूर्वक उसकी बात सुनें, बात की गहराई को समझें और उसे गले लगा लें। समय ऊंचा नीचा चलता रहता है, पारिवारिक बॉन्डिंग बहुत काम आती है। बच्चा भी समय के साथ नकारात्मक फेज से बाहर निकल जाता है और नई ऊर्जा के साथ कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित होता है।
सौजन्य से वीएसके जयपुर
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