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एक राष्ट्र, एक चुनाव : क्या यह भारतीय लोकतंत्र के लिए सही कदम है?

One Nation, One Election: Is it the right step for Indian democracy? - Jaipur News in Hindi

केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा प्रस्तावित 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' (वन नेशन, वन इलेक्शन) का मुद्दा वर्तमान में भारतीय राजनीति में चर्चा का विषय बना हुआ है। इस प्रस्ताव के तहत लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकाय और पंचायत सहित सभी स्तरों के चुनाव एक साथ कराने का लक्ष्य है। सरकार ने इस विषय पर विचार-विमर्श के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च-स्तरीय समिति का गठन किया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है और इस पर अभी विचार चल रहा है। संविधान संशोधन के लिए दो तिहाई बहुमत जरूरी है और इसके लिए जन समर्थन जुटाने के उद्देश्य से इस मुद्दे को देशभर में प्रचारित किया जा रहा है। भाजपा का मुख्य तर्क यह है कि एक साथ चुनाव कराने से भारी मात्रा में धन की बचत होगी, जिसका उपयोग विकास कार्यों में किया जा सकेगा। इसके अतिरिक्त, जनप्रतिनिधियों और सरकारी मशीनरी का ध्यान चुनाव प्रक्रिया से हटकर विकास कार्यों पर केंद्रित हो सकेगा, जिससे उन्हें अधिक समय मिलेगा। भाजपा का यह भी दावा है कि यह कदम भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने में सहायक होगा।
भाजपा यह भी स्पष्ट कर रही है कि 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' केवल भाजपा का विचार नहीं है, बल्कि यह राष्ट्र की आवश्यकता है। स्वतंत्रता के बाद कुछ समय तक, सभी चुनाव एक साथ ही होते थे। लेकिन, बाद में, कुछ केंद्र सरकारों द्वारा संविधान के अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग करके राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया। इसके अलावा, कुछ राज्य सरकारें मतभेदों के कारण समर्थन वापस लेने से गिर गईं, जिससे मध्यावधि चुनाव कराने पड़े। इन परिस्थितियों के कारण, वर्तमान में पूरे वर्ष विभिन्न स्तरों के चुनाव होते रहते हैं।
विभिन्न राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों ने 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के प्रस्ताव पर मिश्रित प्रतिक्रिया व्यक्त की है। जहाँ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसके सहयोगी दल इसे नीतिगत सुधार और संसाधनों की बचत के रूप में देखते हैं, वहीं कई विपक्षी दलों ने इसे संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विरुद्ध बताया है। उनका तर्क है कि इससे राष्ट्रीय मुद्दों का प्रभुत्व बढ़ेगा और क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएँगे, जो भारत की विविधतापूर्ण राजनीतिक परिदृश्य के लिए हानिकारक हो सकता है।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस प्रस्ताव को लागू करने से मतदाता व्यवहार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि मतदाताओं को एक साथ कई स्तरों के चुनावों के लिए अपने विकल्पों का मूल्यांकन करने में कठिनाई होगी। वहीं, कुछ संवैधानिक विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि आवश्यक संवैधानिक और कानूनी प्रावधान किए जाएँ, तो यह प्रस्ताव व्यवहार्य हो सकता है, लेकिन इसके लिए सभी राजनीतिक दलों के बीच व्यापक सहमति बनाना आवश्यक होगा।
'एक राष्ट्र, एक चुनाव' को वास्तविकता में बदलने के लिए भारतीय संविधान के कई अनुच्छेदों में संशोधन की आवश्यकता होगी, जिनमें चुनाव कराने की प्रक्रिया, सदनों की अवधि और राष्ट्रपति शासन से संबंधित प्रावधान शामिल हैं। संविधान के अनुच्छेद 83(2) और 172(1) जो क्रमशः लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल से संबंधित हैं, में एक साथ चुनाव कराने के अनुरूप बदलाव करने होंगे। इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकने के लिए भी स्थायी समाधान खोजने की आवश्यकता होगी, ताकि राज्य सरकारों की स्थिरता सुनिश्चित की जा सके।
कई देशों में एक साथ चुनाव कराने का अनुभव रहा है, जैसे कि स्वीडन और दक्षिण अफ्रीका, जहाँ राष्ट्रीय और स्थानीय चुनाव एक ही समय पर होते हैं। इन देशों के अनुभवों का अध्ययन भारत के लिए उपयोगी हो सकता है, लेकिन भारतीय राजनीतिक और सामाजिक संरचना की विशिष्टताओं को ध्यान में रखना भी महत्वपूर्ण होगा।
भाजपा का मानना है कि इन समस्याओं का समाधान करने के लिए संविधान में संशोधन करना आवश्यक है। लेकिन, संविधान संशोधन के बावजूद, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि भविष्य में अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग नहीं होगा, राज्य सरकारें बर्खास्त नहीं होंगी, या समर्थन वापस लेने से सरकारें नहीं गिरेंगी। यदि ऐसा होता है, तो मध्यावधि चुनाव कराने पड़ेंगे, जिससे फिर से खर्च होगा। कुछ समय बाद, मुख्य चुनाव होंगे, और स्थिति वही रहेगी।
संविधान संशोधन के पक्षधरों का एक तर्क यह है कि यदि कोई सरकार किसी भी कारण से बहुमत खो देती है, तो शेष अवधि के लिए ही चुनाव कराए जाएंगे। लेकिन, यह तर्क संगत नहीं लगता है। इससे तो बेहतर होगा कि यदि समर्थन वापस लेने, बर्खास्तगी या किसी अन्य कारण से कोई सरकार कार्यकाल से पहले बहुमत खो देती है, तो शेष अवधि के लिए राष्ट्रपति शासन लागू करना बेहतर होगा। चुनाव केवल 5 साल बाद ही कराए जाएं।
'एक राष्ट्र, एक चुनाव' को लागू करने के लिए संविधान में व्यापक संशोधन की आवश्यकता होगी, जिसमें राज्यों की सहमति भी शामिल है। एक साथ चुनाव कराने के लिए विशाल प्रबंधकीय व्यवस्था की आवश्यकता होगी, जिसमें मतदान केंद्रों की संख्या बढ़ाना, सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करना और मतगणना प्रक्रिया को सुचारू रूप से संचालित करना शामिल है। क्षेत्रीय दलों को यह डर है कि एक साथ चुनाव कराने से राष्ट्रीय मुद्दों का प्रभुत्व बढ़ेगा और क्षेत्रीय मुद्दे हाशिए पर चले जाएंगे। एक साथ चुनाव कराने से मतदाताओं को विभिन्न स्तरों के उम्मीदवारों और मुद्दों के बारे में जानकारी प्राप्त करने में कठिनाई हो सकती है।
कुछ आलोचकों का तर्क है कि एक साथ चुनाव कराने से लोकतांत्रिक सिद्धांतों का उल्लंघन हो सकता है, क्योंकि यह मतदाताओं को अपनी पसंद के अनुसार अलग-अलग समय पर सरकार चुनने के अधिकार से वंचित करता है। 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' एक जटिल मुद्दा है जिसके कई फायदे और नुकसान हैं। सरकार को इस प्रस्ताव पर सभी हितधारकों के साथ व्यापक विचार-विमर्श करना चाहिए और सभी संभावित परिणामों पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि कोई भी बदलाव लोकतांत्रिक सिद्धांतों और संघीय ढांचे के अनुरूप हो।

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