18वीं लोकसभा के लिए पहले चरण की 102 सीटों के लिए मतदान के प्रति मतदाताओं की उदासीनता ने निराश ही किया है। आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी मतदान प्रतिशत बढ़ने के स्थान पर कम होना निश्चित रुप से किसी भी रुप में लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है।
चुनाव आयोग के लाख प्रयासों के बावजूद मतदान प्रतिशत कम होना निश्चित रुप से सोचने को मजबूर कर देता है।
चुनाव आयोग से पहले चरण के मतदान के प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो साफ हो जाता है कि 2019 की तुलना में दो प्रतिशत तक मतदान प्रतिशत में गिरावट आई है। हांलाकि त्रिपुरा और सिक्किम में मतदान का आंकड़ा 80 प्रतिशत को छूने में सफल रहा है पर वहां भी 2019 की तुलना में कम है।
त्रिपुरा में 2019 के 81.9 प्रतिशत की तुलना में 81.5 प्रतिशत और सिक्किम में 84.8 प्रतिशत की तुलना में 80 प्रतिषत मतदान रहा है। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
पहले चरण के चुनावों में मतदान का सबसे कम प्रतिशत बिहार का रहा है जहां मतदान का आंकड़ा 50 प्रतिशत को भी छू नहीं पाया है। छत्तीसगढ़ में अवश्य 2019 की तुलना में एक प्रतिशत से कुछ अधिक मतदान रहा है। जहां तक राजस्थान का प्रश्न है 12 सीटों पर हुए मतदान में वोटिंग प्रतिशत में 6 फीसदी की गिरावट रही हैं। सभी सीटों पर मतदान का प्रतिशत 2019 की तुलना में कम रहे हैं। हांलाकि चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ें आरंभिक सूचना के आधार पर है पर इनमें कोई खास बदलाव आने की संभावना नहीं है।
मजे की बात यह है कि पहले चरण में लोकसभा की 543 सीटों में से 20 प्रतिशत से कुछ कम 102 सीटों पर मतदान हो चुका हैं। यदि मतदाताओं का अगले चार चरणों के मतदान में भी यही रुख रहता है तो यह चुनाव आयोग, राजनीतिक दलों, लोकतांत्रिक व्यवस्था, गैरसरकारी संगठनों सहित सभी के लिए चिंतनीय हो जाता है।
मतदान में हिस्सा नहीं लेने वाले मतदाताओं को किसी भी हालत में देश का जिम्मेदार नागरिक नहीं कहा जा सकता।
आज चुनाव आयोग ने जहां अवेयरनेस प्रोग्राम के माध्यम से लोगों को मतदान के प्रति जागृत किया हैं वहीं पारदर्शी और सहज मतदान व्यवस्था सुनिश्चित की है। आज मतदाताओं को किसी राजनीतिक दल पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। एक मतदान केन्द्र पर एक सीमा तक ही मतदाता होने के साथ ही मतदान केन्द्र पर सभी तरह की व्यवस्था सुनिश्चित की जाती है।
अब तो मतदाता को चुनाव आयोग द्वारा मतदाता क्रमांक से लेकर मतदान केन्द्र तक की जानकारी का समावेश करते हुए परची उपलब्ध कराई जाती है। सीनियर सिटीजन और मतदान केन्द्र तक जाने में अक्षम मतदाताओं को घर से मतदान की सुविधा दी गई है।
मतदाताओं को जागृत करने के लिए प्रचार के सभी माध्यम यहां तक कि सोशियल मीडिया का उपयोग किया जाने लगा है।
मतदान को निष्पक्ष और भयमुक्त कराने के लिए संपूर्ण व्यवस्था चाक चौबंद की जाती है। राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों की प्रत्येक गतिविधि पर नजर रखी जाती है। यहां तक कि उम्मीदवार से संबंधित जानकारी साझा की जाती है।
संवेदनशील मतदान केन्द्रों पर विशेष व्यवस्था होती है। कानून व्यवस्था सुनिश्चित करने के साथ ही मतदान केन्द्र पर सुरक्षा की व्यवस्था सुनिश्चित की जाती है। इसके अलावा यह नहीं भूलना चाहिए कि साक्षरता और लोगों में जागरुकता आई है।
चुनाव आयोग के अलग अलग ऑब्जरवर द्वारा पूरी व्यवस्था पर कड़ी नजर रखी जाती है ताकि राजनीतिक दलों या उम्मीद्वारों द्वारा मतदाताओं को किसी भी गलत तरीके से प्रभावित नहीं किया जा सके। इस सबके बावजूद मतदान कम होना गंभीर हो जाता है।
लोकसभा के पहले चुनाव 1952 में 44.87 प्रतिशत मतदान रहा था जो सर्वाधिक 67.40 प्रतिशत 2019 के 17 वीं लोकसभा के चुनाव में रहा। मतदान में उतार चढ़ाव तो देखा जाता रहा है पर चुनाव व्यवस्था के सरलीकरण, पारदर्शिता, निष्पक्ष चुनाव की चाकचोबंद व्यवस्था, ग्रामीण और शहरी सभी क्षेत्रों में साक्षरता में बढ़ोतरी के बावजूद यदि मतदान प्रतिशत 90 के आंकड़ें को भी नहीं छूता है तो यह घोर निराशाजनक है। हांलाकि आजादी के बाद सर्वाधिक मतदान 1984 के 64.01 के आंकड़़ें को 2014 में पीछे छोड़ा गया पर 2019 के पहले चरण के मतदान से निराशा ही हाथ लगी है।
आखिर शिक्षित मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग करने के प्रति इतना गैर जिम्मेदार कैसे हो रहा है। सब कुछ को अलग कर दिया जाये तो भी इस बात से नहीं नकारा जा सकता कि देश के नागरिक का भी अपने देश के प्रति लोकतंत्र के प्रति दायित्व होता है। आखिर हम सरकार की आलोचना करने में तो पीछे नहीं रहते पर कभी हमने सोचा है क्या कि हम मताधिकार का उपयोग करने के अपने दायित्व को नहीं समझ पाते हैं।
अपनी सरकार चुनने के अवसर पर हम हमारे दायित्व को कैसे भूल जाते हैं।
इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पीण भी अपने आप में गंभीर हो जाती है। भारत जैसे देश के आम नागरिकों द्वारा इस तरह से लोकतंत्र के इस महापर्व में अपनी हिस्सेदारी नहीं निभाना किसी अपराध से कम नहीं माना जाना चाहिए।
हमें गर्व होता है कि हमारे देश का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। पर हमें उस समय नीचे देखने को भी मजबूर होना पड़ता है जब इतने बड़े लोकतंत्र के पर्व पर आमनागरिक अपने दायित्व को समझने और उसे पूरा करने की भूल कर बैठता है और मताधिकार का उपयोग नहीं कर व्यवस्था को ठेंगा बताने का प्रयास करते हैं।
मेरा तो यहां तक मानना है कि नोटा का प्रयोग भी सही विकल्प नहीं है वहीं मतदान का बहिष्कार तो देशद्रोह से कम अपराध नहीं माना जाना चाहिए। चुनाव आयोग, राजनीतिक दलों, सर्वोच्च न्यायालय, सरकार गैरसरकारी संगठनों और समाज के प्रबुद्ध जनों को सोचना होगा कि लोकतंत्र के इस महापर्व में मतदान कर अपनी आहुति देने के काम से मुहं मोड़ने वालों के प्रति कोई सख्त कदम जैसा प्रावधान होना ही चाहिए।
कोई ना कोई ऐसा संदेश जाना चाहिए ताकि लोग मतदान के प्रति संवेदनशील हो और मतदान अवश्य करें। यह समूची व्यवस्था को ही सोचने को मजबूर कर देता है। आने वाले चार चरणों में होने वाले मतदान में अधिक से अधिक मतदाता हिस्सा ले इसके लिए सभी स्तर पर समन्वित प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
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