दीक्षांत है पुरातन परम्परा
उन्होंने कहा कि हमारे यहां
गुरूकुल परम्परा में शिक्षा के सम्पन्न होने के बाद दीक्षान्त विधि या
गुरूमंत्रा देने की परम्परा रही है। इससे शिक्षा के सर्वांगीण सदुपयोग,
वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं वैश्विक विकास का संवाहक होने के लिए
विद्यार्थी तत्पर रहता था। उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की कि हमारे
विश्वविद्यालयों में पाश्चात्य एवं अंग्रेजों के तौर -तरीकों को बदलकर
दीक्षांत समारोह को भारतीय परिवेश और परिधान की साज-सज्जा से जोड़ा गया है।
इस दीक्षांत परम्परा को सर्वांगीण विकास का संकल्प, सेवा -समर्पण का भाव,
वैयक्तिक-पारिवारिक हित साधन के साथ पूरे देश और विश्व कल्याण की भावना और
कर्म -साधना जैसे भारतीय जीवन-मूल्यों से भी जोड़ने की महती आवश्यकता है।
उन्होंने कहा कि दीक्षांत समारोह का अर्थ शिक्षा का समापन होता है लेकिन
वास्तव में यह शिक्षा का समापन नही है। यह जीवन की एक नयी शुरूआत है। उपाधि
ग्रहण करना मंजिल नहीं है, सिर्फ एक पड़ाव है।
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