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गहलोत बनाम पायलट : साथ उनके मेरा शेख तो चल ही नहीं सकता,बंदर की तरह ऊंट उछल ही नहीं सकता...

Gehlot vs Pilot: My sheikh cannot walk with him, a camel cannot jump like a monkey... - Jaipur News in Hindi

डॉ. रमेश अग्रवाल

जयपुर।
कर्नाटक का नाटक समाप्त होने के बाद से ही, राजनीति के कैमरे का फोकस राजस्थान के उस जादुई थियेटर पर आ टिका था जिसमें किसी बालीवुड फिल्म जैसा सस्पेन्स और ड्रामा था तो दक्षिण भारतीय हिट फिल्म जैसा एक्शन और मारधाड़। बहुप्रतीक्षित इस फिल्म का एक ट्रेलर हाल ही हमने अजमेर के गोविन्दम गार्डन में देखा जहां अशोक गहलोत और सचिन पायलट समर्थकों के बीच कराटे से लेकर बाक्सिंग तक हर मार्शल विधा का एक साथ फिल्मांकन हुआ।

राजस्थान में 6 महिने बाद होने जा रहे विधान सभा चुनाव की सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसकी तैयारी में कौरव और पांडव, या यूं कहें कि भाजपा और कांग्रेस एक दूसरे के कांधे से कांधा मिला कर भाग ले रहे हैं। बकौल अशोक गहलोत अब से 3 साल पहले जहां एक तरफ भाजपाई केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत नें उनकी सरकार के पाये हिलवाने में उनके पार्टी भाई सचिन पायलट का साथ दिया वहीं दूसरी तरफ भाजपाई महारानी वसुंधरा राजे नें उनके पायों की हिलती चूलों में अपनी कील लगा कर बुरे वक्त में मित्रता का सबूत दिया।उधर पायलट जहां एक तरफ राजे से सांठगांठ का आरोप लगा खुद गहलोत से हिसाब चुकता कर रहे हैं वहीं वसुंधरा के रूप में गजेन्द्र् सिंह की बिवाई का कांटा निकाल कर उनसे अपनी मित्रता का कर्ज भी अदा कर रहे हैं।

गहलोत और पायलट की पंजा लड़ाई का परिणाम सुनाने के लिये कांग्रेस हाईकमान द्वारा पहले 24 व फिर 26 मई को दिल्ली में रखी बैठक टल जाने से प्रथम दृष्टया ऐसा लगा कि हाईकमान ,बाक्सिंग रिंग के चतुर रैफरी की तरह किसी लफड़े में पड़ने के बजाय दोनों में से किसी एक का स्वत: नाँकडाउन चाहती है मगर सच्चाई यह है कि पायलट को लेकर खुद हाईकमान की हालत सांप और छछुंदर जैसी है। एक तरफ पायलट के प्रति गांधी परिवार का धृतराष्ट्र जैसा मित्रमोह है तो दूसरी तरफ इनके बढ़ते हौंसलों से पार्टी अनुशासन की उड़ती धज्जियां। एक तरफ गहलोत द्वारा पिछले सितम्बर में विधायकों के इस्तीफे दिलवा कर हाईकमान को दी गई घुड़की की टीस है तो दूसरी तरफ उनकी चर्चित योजनाओं की पृष्ठभूमि में यह डर कि अगले चुनाव में उनकी नाराजगी कांग्रेस को पायलट से ज्यादा नुक्सान पहुंचा सकती हैं।

बहरहाल सचिन पायलट नें खुली बगावत के लिये 30 मई तक का अल्टीमेटम दिया है तो अशोक गहलोत ने डैमेज कन्ट्रोल के लिये 5 जून को मंत्रिमंडल विस्तार का ऐलान कर चौखट पर शकरकंद टांक दी है। तय है कि फैसला इन दोनों में से ही कोई एक करेगा। पायलट के आर.पी.एस.सी.और वसुंधरा घोटाला राग के बोल भले जो भी हों भाव क्या है सब जानते हैं?हाईकमान के पास संकट के हल अब भी वे ही हैं जो तीन साल पहले थे। हां तब या बाद के दो और मौकों पर हाईकमान ने ये हल चला लिये होते तो कांग्रेस का इतना रायता न ढुलता। बेशक ढुला हुआ काफी सारा रायता भाजपा को पुरसी थाली के रूप में मिल गया है मगर जो बचा है उसे बचाये रखना हो तो कांग्रेस के लिये आगे लिखे बिन्दु कुछ काम आ सकते हैं।

पहला- सोचने मे जितना ज्यादा समय लगेगा। रायता उतना ज्यादा ढुलेगा।

दूसरा- कर्नाटक दक्षिण में है और राजस्थान उत्तर में। यह वर्ष राजस्थान में रोटी के पलटने का वर्ष है। कांग्रेस के पास खोने के लिये ज्यादा कुछ नहीं है। कुछ न करके सब कुछ खो देने से कुछ करके थोड़ा खो देना बेहतर है।

तीसरा- पायलट के विरुद्ध कार्रवाई के लिये देरी हो चुकी है मगर गहलोत के विरुद्ध कार्रवाई में बहुत ज्यादा देरी। चार साल पहले गहलोत का फोर पैक अब सिक्स पैक हो गया है अब वे ज्यादा नुक्सान पहुंचाने की स्थिति में हैं।

चौथा- पायलट को उपमुख्यमंत्री या प्रदेश अध्यक्ष बना कर चुनाव तक ठंडा पानी छिड़क भी दिया गया और चुनाव में कांग्रेस की लाटरी लग गई तो सात महिने बाद फिर वही स्थिति सामने आनी है जो कर्नाटक में चुनाव के बाद सामने आई।

पांचवा- जिस किसीका जहाज डूबता दिखाई देगा आधी से ज्यादा भीड़ जहाज के चूहों की तरह खुद उसका साथ छोड़ देगी।

छठा- अंतिम यह कि कांग्रेस में हिम्मत हो तो गहलोत को हटा कर पायलट के नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ कर देख सकती है। क्या पता मात्र चेहरा बदलने से, एन्टी इनकम्बेन्सी के नाम पर हर पांच साल बाद पलटने वाली रोटी तवे के बजाय कांग्रेस की थाली में ही पलट जाये।

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