इलाहाबाद हाईकोर्ट की खंडपीठ ने हाल ही में गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि ट्रायल कोर्ट के जज कई बार हाईकोर्ट के डर से, स्पष्ट बरी होने के या ज़मानत लेने वाले मामलों में भी, जघन्य अपराधों के आरोपियों को दोषी ठहराते हैं। जस्टिस सिद्धार्थ और जस्टिस सैयद कमर हसन रिजवी की पीठ ने कहा, "वे उच्च न्यायालय के संभावित नाराजगी से बचने के लिए ऐसा करते हैं, अपनी प्रतिष्ठा और करियर को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से ऐसे मामलों में दोषसिद्धि के आदेश पारित करते हैं।"
खंडपीठ ने अफसोस जताया कि सरकार ने विधि आयोग की 277वीं रिपोर्ट (2018) की सिफारिशों को अब तक स्वीकार नहीं किया, आयोग ने अपनी सिफारिशों में अभियोजन के शिकार लोगों के लिए मुआवजा और अन्य राहत का प्रावधान किया है। न्यायालय ने कहा कि इस सिफारिश के लागू न होने के कारण संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, इसके अतिरिक्त, यह भी विचारणीय है कि नवीन भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) में भी अनुच्छेद 14 और 21 के अनुरूप इस मुद्दे पर कोई विशेष प्रावधान नहीं है। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
विधि आयोग द्वारा अपनी रिपोर्ट में गलत अभियोजन के मामलों के लिए कानूनी प्रावधान की आवश्यकता पर जोर देते हुए राज्य पर वैधानिक दायित्व के अंतर्गत पीड़ितों को मुआवजा देने की सिफारिश की गई थी। प्रस्तावित मुआवजे के ढांचे में गैर-मौद्रिक और मौद्रिक सहायता दोनों का ही प्रावधान था और दोषी अधिकारियों से क्षतिपूर्ति किए का अधिकार भी शामिल था।
हाईकोर्ट ने कहाकि झूठे आरोप से पीड़ित व्यक्ति और उसके परिवार को न्यायालय द्वारा वित्तीय सहायता प्रदान करना अपर्याप्त है।
झूठे आरोप के कारण आरोपित व्यक्ति और उसके परिवार को जिस आघात का सामना करना पड़ता है, वह अकल्पनीय है, और "इस प्रक्रिया में आरोपित व्यक्ति के व्यक्तित्व की आभासी मृत्यु हो जाती है," जिससे उनके लिए सामान्य जीवन में लौटना कठिन हो जाता है। न्यायालय ने कहा कि आरोपित व्यक्ति और उसका परिवार आपराधिक न्याय प्रणाली की कठिनाइयों से पीड़ित होता है और मुकदमा लड़ने की कठिन और महंगी प्रक्रिया अक्सर उन्हें आर्थिक और मानसिक रूप से टूटने पर मजबूर कर देती है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने विभिन्न निर्णयों में ऐसे मामलों में गलत अभियोजन के प्रभाव पर गंभीर टिप्पणी की है।
सुप्रीम कोर्ट के मामलों जैसे गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, और सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य में, न्यायालय ने अनुच्छेद 14 और 21 के तहत जीवन के अधिकार की व्याख्या करते हुए कहा है कि मुकदमा चलाने और दोषसिद्धि की न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता बनाए रखना आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना है कि निर्दोष लोगों को गलत तरीके से दोषी ठहराना आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए गंभीर समस्या है और ऐसी त्रुटियों से प्रभावित व्यक्तियों के लिए मुआवजे की जरूरत है।
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में राज्य और न्यायिक संस्थाओं को अपराध के मामलों में उचित विवेक और न्यायिक स्वतंत्रता के साथ निर्णय लेने का निर्देश दिया, ताकि निर्दोष व्यक्तियों को गलत तरीके से दोषी ठहराने से बचा जा सके।
सामान्यतः यह देखा गया है कि जिस प्रकरण के आधार पर FIR दर्ज की जाती है उसके content और लगाई गई आपराधिक धाराओं में कोई ताल सुरम्य ही नहीं होता और निर्दोष को दोषी मानते हुए, उसे कारावास तक में भिजवा दिया जाता है।
हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बाद भी सम्बन्धित थानाधिकारी जब जांच में जुर्म के सबूत नहीं जुटा पाता तो प्रकरण में लंबे समय तक चालान या चार्ज शीट ट्रायल कोर्ट में पेश नहीं करेगा और जिस व्यक्ति का कोई दोष ही नहीं, उसे समाज में या न्यायालय में चिल्ला चिल्ला कर अपराधी बताने में संकोच नहीं होता जबकि वास्तव में उसने जुर्म किया ही नहीं, कानून मंत्री को ऐसे प्रकरणों में सख्त नीति निर्देश जारी किए जाने की महती जरूरत है क्योंकि न्याय कहता है कि भले ही 100 अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होनी।
Let hundred guilty be acquitted but one innocent should not be convicted
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