चंडीगढ। युद्ध दिग्गज शनिवार को सैन्य साहित्य समारोह (एमएलएफ) मंच पर एक साथ आए, ताकि वे सभी प्रथम विश्व युद्ध के नायकों के बलिदानों को मनाने के लिए एक समर्पित युद्ध स्मारक की मांग कर सकें। उन्होंने प्रसिद्ध मीडिया शख्सियत बरखा दत्त द्वारा संचालित ‘कोंट्रीब्यूशन ऑफ इंडिया टूवर्डस द फर्सट वर्लड वॉर’ पर एक पैनल चर्चा में कहा कि बहादुर भारतीयों, विशेष रूप से पंजाबियों के अब तक अपरिचित योगदान को जोर-शोर से प्रचारित करने की जरूरत है। ये भी पढ़ें - अपने राज्य - शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
पैनलिस्टों में स्क्वाड्रन लीडर राणा छिना, प्रोफेसर डेविड ओमिसी, प्रोफेसर अंजू सूरी के अलावा डॉ डॉ शांतनु दास और लेफ्टिनेंट जनरल एनएस बराड़ शामिल थे, जो एक उत्साहजनक चर्चा में व्यस्त थे जिसमें 1914-19 18 युद्ध के दौरान सैनिकों और उनके परिवारों द्वारा सामाजिक और भावनात्मक अशांति को दर्शाया गया।
पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, जो खुद एक प्रतिष्ठित सैन्य इतिहासकार हैं, इस सत्र में स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण शामिल नहीं हो सके। चर्चा में हिस्सा लेते हुए, स्क्वाड्रन लीडर राणा छिना ने ब्रिटिश सरकार द्वारा चुने गए रैड पोपी की तर्ज पर, सभी शहीद हुए नायकों की यादों को सम्मानित करने के लिए स्मृति पुष्प के रूप में ओरेंज मैरीगोल्ड की घोषणा का सुझाव दिया। इस विचार का सभी पैनलिस्टों द्वारा एक आवाज में समर्थन किया गया और इसे औपचारिक रूप से केंद्र सरकार को एक प्रस्ताव द्वारा आगे बढ़ाने का निश्चय भी किया गया।
पंजाबियों से संबंधित मौखिक साहित्य पर प्रकाश डालते हुए, जो साम्राज्य के आदेश पर युद्ध में शामिल हो गए, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध इतिहासकार ने बताया कि पंजाब ने 1914-18 के दौरान साहित्य की एक शक्तिशाली और विविध श्रेणी का निर्माण किया। पांच नदियों की यह भूमि कहानियों, कविताओं, किस्सों, दस्तान, प्रार्थनाओं की आवाजों और गूंज से भरा हुआ था, कभी-कभी क्रोध और उदासीनता से घिरा हुआ था। यह कभी चुप नहीं रहा मगर आवाजों और सरसराहटों से भरा हुआ था।
उन्होंने कहा कि पुरुषों के बीच 6.4 प्रतिशत की साक्षरता दर और महिलाओं में एक प्रतिशत से भी कम दर के होते हुए यहां के निवासी गैर साक्षर थे लेकिन वे बहुत ही साहित्यिक थे। उन्होंने कहा कि प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों, विशेष रूप से पंजाबियों द्वारा निभाई गई शानदार भूमिका की पहचान की कमी की वजह से इसे जानबूझकर भूलाया जाना था न कि इस बारे में साहित्य की गैर-मौजूदगी।
पहले विश्व युद्ध के शुरू होने तक के हालातों और पंजाबियों को इसमें शामिल किये जाने बारे रौशनी डालते हुए प्रो. डेविड ओमिसी, जिन्होंने सिपाहियों और उनके परिवारों द्वारा लिखी गई चिट्टियों का बहुत गहराई से अध्ययन किया है, ने कहा कि इन चिट्टियों में सिपाहियों द्वारा सहन की गई कठिनाइयों और पीड़ाओं की झलक मिलती है।
सिपाहियों द्वारा ऐसी जंग लडऩे जोकि उनकी अपनी नहीं थी, की भावना बारे लैफ्टिनैंट जनरल बराड़ ने कहा कि इसके पीछे सम्मान, आत्मसम्मान, परिवार की परंपरा, रेजीमेंट का मान और वफ़ादारी की भावना का बड़ा हाथ था। सिपाहियों को सिपाही की जगह पर लुटेरा मानने की धारणा को रद्द करते हुए उन्होंने कहा कि एक सिपाही हमेशा हुक्म मानता है और किसी राजनैतिक या साम्राज्यवादी हकूमत के साथ उसका कोई संबंध नहीं होता है। पंजाब यूनिवर्सिटी की प्रो. अंजू सूरी ने नौजवानों में इस प्रभावी संदेश के प्रसार को यकीनी बनाने के लिए मिलिट्री इतिहास और भारतीय राजनैतिक वृतांतों को समकालीन बनाने सम्बन्धी ठोस प्रयास किये जाने का सुझाव दिया।
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