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जम्मू-कश्मीर में भविष्य की राजनीतिक सत्ता की कुंजी आजाद के हाथ में होगी?

Will Azad be the key to future political power in Jammu and Kashmir? - Jammu News in Hindi

जम्मू। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद के राज्यसभा से सेवानिवृत्त होने के बाद वफादारों द्वारा आयोजित रिसेप्शन में उनके हालिया भाषणों ने पार्टी की रैंक और फाइल को जम्मू-कश्मीर में एक तरह से अधर में लाकर रख दिया है। 45 से अधिक वर्षों से, आजाद और कांग्रेस पार्टी जम्मू-कश्मीर में एक ही सिक्के के दो चेहरे रहे हैं। एक कांग्रेस कार्यकर्ता या समर्थक कांग्रेस का समर्थन करने का दावा नहीं कर सकता था अगर वह आजाद का विरोध करता।

कांग्रेस में आजाद का कद काफी हद तक गांधी-नेहरू परिवार के साथ निकटता का था।

चेनाब घाटी क्षेत्र में उनकी लोकप्रियता के बजाय, यह उनकी पहुंच थी, पहले संजय गांधी और बाद में पूरे परिवार के लिए, जिसने उन्हें राजनीति में कद्दावर नेता बना दिया।

आजाद जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए जाना-पहचाना चेहरा तब बने थे, जब उन्होंने 1980 में महाराष्ट्र के वाशिम निर्वाचन क्षेत्र से 7 वीं लोकसभा के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में लोकसभा चुनाव जीता था।

वह उस समय तक जम्मू-कश्मीर में बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं थे, लेकिन 7 वीं लोकसभा चुनाव में बड़े अंतर से उनकी जीत ने उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में लाकर रख दिया।

1982 में उन्हें कानून, न्याय और कंपनी मामलों के लिए उपमंत्री बना दिए जाने के बाद, 1949 में जम्मू क्षेत्र के सुदूर भदरवाह इलाके में पैदा हुए इस गांव के लड़के को फिर पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा।

उनका राजनीतिक करियर उनके सहयोगियों और आलोचकों दोनों के लिए ईष्र्या का कराण रहा है। और फिर भी, राजनीति में अपनी लंबी पारी के सूर्यास्त की ओर, आजाद ने पार्टी में विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर में अपना प्रभाव दिखाने की कोशिश की है।

असंतुष्टों के जी -23 समूह के एक प्रमुख नेता के रूप में, आजाद ने अपनी पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्व की बुद्धिकौशल पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है।

यह इस पृष्ठभूमि में था कि हाल ही में जम्मू में उनके एक रिसेप्शन के दौरान, कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता, आनंद शर्मा ने कहा कि पार्टी दिन पर दिन कमजोर होती जा रही है, क्योंकि इसके वरिष्ठ नेता वृद्ध होते जा रहे हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनके समर्थकों और विरोधियों दोनों के मन में बात यह है कि आजाद राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा द्वारा पार्टी के मामलों को संभालने और साथ ही सोनिया गांधी ने कथित रूप से उन्हें जो छूट दी है, उस पर सवाल उठा रहे हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर उनके असंतोष के निहितार्थ जो भी हों, इस तथ्य से कोई इनकार नहीं करता है कि पार्टी की जम्मू- कश्मीर इकाई वर्टिकल दरार के लिए तैयार है।

इस डर की वजह से ही जम्मू-कश्मीर कांग्रेस के अध्यक्ष जी.ए. मीर दो दिन पहले पार्टी के शीर्ष बॉस के साथ मामले पर चर्चा करने के लिए दिल्ली पहुंचे।

यदि रिपोर्टों पर विश्वास किया जाए, तो आजाद कांग्रेस को नहीं छोड़ेंगे, लेकिन पार्टी समर्थकों के एक असंतुष्ट समूह का गठन करेंगे, जो भारत के चुनाव आयोग से एक नया चुनाव चिन्ह मांगने के बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव लड़ेंगे।

यह कांग्रेस के लिए 1978 के समय हुई घटना की पुनरावृत्ति जैसा होगा, जब शरद गोविंदराव पवार ने कांग्रेस-एस का गठन किया था।

आजाद समर्थकों को चिनाब घाटी जिलों डोडा, किश्तवाड़, रामबन और रियासी में विधानसभा सीटें जीतने की उम्मीद की है।

आजाद विशेष रूप से जम्मू क्षेत्र में मुस्लिम वोटों के साथ कई अन्य विधानसभा सीटों पर जीत और हार पर प्रभाव डाल सकते हैं।

उनके समर्थकों में से एक ने कहा, "इस तरह से, एक बार लोकतंत्र केंद्र शासित प्रदेश में बहाल होने के साथ ही आजाद साहब जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक सत्ता की कुंजी अपने पास रखेंगे।"

--आईएएनएस

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