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बैसाखी में अब नहीं सुनाई देती ढोल की धमक, महिलाओं के राग मल्हार, लोगों का श्रद्धाभाव

In Baisakhi, the beat of the drum is no longer heard, womens melody Malhar, peoples reverence - Kangra News in Hindi

ज्वालामुखी। बैसाखी में अब नहीं सुनाई देती ढोल की धमक, महिलाओं के राग मल्हार, लोगों का श्रद्धाभाव। एक समय ऐसा भी था,जब कांगड़ा जिला के ज्वालामुखी से सटे कालेशवर के बैशाखी मेले का अपना एक महत्व था, पूरा साल लोग इस दिन का इंतजार करते थे । इसी धरा पर नौजवान अपनी होने वाली जीवनसंगनी को नजर भर देख रिशते तय कर लेते थे, तो बैलों का व्यापार होता, महिलायें खरीददारी करतीं । नवविवाहितों को लाया जाता व समाज से जोडऩे के लिए उन्हें रस्मों रिवाज बताये जाते , तो कुछ ब्यास के तट पर ग्रहों का नाश कराने के लिए पूजा पाठ कराते । हजारों लोग यहां जुटते तो मेले का अलग ही नजारा बनता । ऐसी मान्यता रही है कि जिन युवतियों के विवाह नहीं होते, वह महीना भर पहले अपने घरों में रली पूजन शुरू करतीं , ऐसा कहा जाता है कि रली एक ब्राह्मण की कन्या थी। उसके पिता ने उसकी शादी उससे छोटी आयु के लडक़े शंकर के साथ कर दी। विवाह के समय रली खामोश रही। लेकिन जब बारात विदा होकर नदी के किनारे से होकर जा रही थी तो रली ने नदी में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए। शंकर व उसके भाई वीरनू ने भी रली की जान बचाने को नदी में छलांग लगा दी। लेकिन तीनों के प्राण चले गए।
कहा जाता है कि तब से रली, शंकर व वीरनू की याद में लड़कियां मिट्टी की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा करती हैं। कांगड़ा जनपद में रली शंकर पूजन का बड़ा महत्व माना जाता है। रली शंकर पूजन के दौरान लोग मन्नतें भी मानते हैं। यह भी धारणा है कि रली शंकर की पूजा करने पर लड़कियों को योग्य वर मिलता है। रली शंकर के विवाह के दो दिन बाद वैशाखी के दिन उन मूर्तियों का विर्सजन यहां इस दिन कर देतीं ।
बदलते जमाने में मेले की तस्वीर भी बदलती जा रही है । हालांकि प्रदेश सरकार ने इस मेले को प्रदेश स्तरीय घोषित कर रखा है , मेला तीन दिन तक चलता है । लेकिन सुविधाओं को मामले में यह इलाका आज भी पिछड़ा है ।
मेले में तो आज हालात ओर भी बिगड़ रहे थे । पूरा दिन शराबी युवाओं के जत्थे हुड़दंग मचाते रहे , कहीं कोई उन्हें रोकने वाला नहीं दिखा । सबसे बुरी हालत तो महिलाओं की थी, ब्यास के तट पर खुले में पवित्र स्नान शरारती तत्वों को शरारत का आमंत्रण दे रहा था । बेबसी के माहौल में महिला सशक्तिकरण के दावे रसातल में जा रहे थे।
यही नहीं ब्यास के उस पार पंजतीर्थी में भी खूब धक्का मुक्की होती रही । स्नान के लिये महिलाओं के लिये तालाब में पर्दा लगा दिया था। लेकिन बाहर मनचले युवक बेखौफ दिखाई दिये।
सबसे बुरा हाल तो ब्यास के उस पार जाने वालों का हो रहा था। नाव के सहारे जोखिम भरा सफर हो रहा था। पुलिस किसी अनहोनी को रोकने में तत्पर नहीं दिखी। करीब चार पांच नावों को इस काम में लगाया गया था, लेकिन नावों के मल्लाह मनमाने दाम वसूलते रहे। पूरा दिन जरूरत से अधिक लोग सफर करते रहे। इस बात को भूलकर कि इसी जगह कुछ साल पहले करीब तीस लोग इसी गलती की वजह से जल समाधि ले चुके हैं। हालांकि पुल बनने से कुछ राहत मिली है। लेकिन लोग वैशाखी के दिन नाव में सफर करना ज्यादा पसंद करते हैं। पुल के उस पार कुछ लोगों ने नाका लगा रखा था, यहां पार्किंग के नाम पर हो रही वसूली किसी के समझ नहीं आ रही थी।
आजादी के सत्तर से अधिक साल बाद यह अनोखी ही बात है कि मेला सरकारी स्तर पर मनाया जाता है। लेकिन लोगों के नहाने के लिये यहां घाट तक नहीं बन पाये हैं।ं न ही ब्यास के तट तक जाने का रास्ता बन पाया है। मेले की महिमा से अधिक तो आज यहां की शमशान घाट के रूप में अधिक है। इसी तट पर इलाके के लोग अन्तिम संस्कार करते हैं। कालेशवर मन्दिर के आसपास का इलाका सदियों बाद भी जस का तस है। यहां भगवाधारी साधुओं का जत्था धर्म कर्म के बजाये चढावे पर नजर रखता है। लाखों रूपये की आमदन कहां जा रही हैं। कोई नहीं बता पा रहा है।

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Web Title-In Baisakhi, the beat of the drum is no longer heard, womens melody Malhar, peoples reverence
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