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अब यही मेरी दुनिया है: एक स्त्री की चुपचाप क्रांति

This is my world now: A womans silent revolution - Hisar News in Hindi

स्त्री वह शब्द जिसे कहते तो हम 'जननी', 'धैर्य की मूर्ति', 'संसार की आधारशिला' हैं, लेकिन जब वही स्त्री अपने अधिकार, सम्मान और भावनात्मक सहारे की बात करती है तो समाज उसे ‘सहनशील’ बने रहने की सलाह दे डालता है। एक बेटी जब विदा होती है, तो उसके साथ भावनाओं की एक पूरी दुनिया भी उसकी ससुराल चली जाती है। पर क्या यह विदाई केवल भौतिक होती है? या एक गहरी मानसिक क्रांति की शुरुआत? हर स्त्री का मायका उसके जीवन की पहली पाठशाला होता है। वहीं उसने चलना, बोलना, हँसना, डरना और दुनिया को देखना सीखा। पर एक बार विवाह के बाद, वही मायका धीरे-धीरे 'अतीत' बन जाता है। अब वह 'बेटी' नहीं, 'बहू' होती है। उसे मायके जाना 'ज्यादा नहीं शोभा देता'। वहाँ के दुःख में वह 'मेहमान' बन जाती है और अपने ही घर में 'अजनबी'। वह जानती है कि अब वह कभी उस गोद में सिर नहीं रख सकती जिसे कभी माँ की ममता कहा जाता था। अब उसके आँसू पोछने के लिए भाई की बाँह नहीं है। अब वह किसी को नहीं कह सकती कि "मैं थक गई हूँ", क्योंकि अब उसे ही सबको संभालना है।
वह हर रिश्ते को पूरी निष्ठा से निभाती है। चाहे सास का मान हो या पति की सेवा, बच्चों की परवरिश हो या घर की हर छोटी-बड़ी ज़िम्मेदारी—वह सब कुछ करती है। लेकिन इस प्रक्रिया में उसके अपने सपने, इच्छाएँ और भावनाएँ धीरे-धीरे बेमानी हो जाती हैं। रिश्तों में दिलचस्पी की जगह अब ज़रूरतें रह जाती हैं। अब वह बहू है, माँ है, पत्नी है, लेकिन शायद 'बेटी' अब सिर्फ एक स्मृति बन चुकी है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह मुस्कुराती रहे, चाहे भीतर कितनी ही आँधियाँ क्यों न चल रही हों।
जब कोई कहता है, "बेटी थक गई होगी," तो एक मौन गूंजता है—न कोई आवाज़, न कोई शिकायत। क्योंकि उसे मालूम है कि उसकी थकान का कोई मोल नहीं। वह आँसू भी अपने आँचल से ही पोंछ लेती है और खुद को समझा लेती है, "अब यही मेरी दुनिया है।" यह चुप्पी हार नहीं है, यह एक हथियार है—संघर्ष का, संयम का, और शायद क्रांति का भी। यह वही चुप्पी है जो स्त्रियों को सहने की नहीं, समझने की शक्ति देती है। यह चुप्पी उन्हें टूटने नहीं देती, बल्कि उनके भीतर एक औरत से ‘नायिका’ बनने की प्रक्रिया को जन्म देती है। स्त्रियाँ उस घर को ‘अपना’ मान लेती हैं, जहाँ उन्हें केवल भूमिका निभानी होती है।
अपने मन की बात कहने की जगह नहीं होती, बस जिम्मेदारियों का पहाड़ होता है। ऐसे में अगर किसी दिन वह सिर्फ इतना कह दे कि "मुझे भी थोड़ी देर बैठना है", तो घर में खलबली मच जाती है। उसे हमेशा दूसरों के सुख में खुश होना सिखाया गया है। खुद के दुःखों को जीने की इजाज़त नहीं। वह घर की लक्ष्मी तो बनती है, पर मन की रानी शायद ही कभी। हम कहते हैं कि औरतें आज आत्मनिर्भर हो गई हैं।
वे ऑफिस जाती हैं, पैसा कमाती हैं, निर्णय लेती हैं। पर क्या मानसिक रूप से उन्हें वह स्पेस, वह सुरक्षा, वह 'अपनेपन' का वातावरण मिला है? वह बिना मायके के भी जीना सीख गई है। यह वाक्य सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि एक पूरी यात्रा का सार है। वह जानती है कि अब किसी का कंधा नहीं मिलेगा। वह अपने आँचल को ही तकिया बना लेती है और अपनी पीठ खुद थपथपा लेती है। स्त्री को एक बहू, पत्नी या माँ बनकर जीने के लिए कहा जाता है, लेकिन कोई नहीं पूछता कि वह एक 'व्यक्ति' के रूप में क्या चाहती है? उसकी भावनाएँ, इच्छाएँ, सपने — क्या वो सबकुछ शादी के साथ खत्म हो जाने चाहिए?
विवाह उसके जीवन का हिस्सा हो सकता है, लेकिन सम्पूर्ण नहीं। वह एक पूरी किताब है, जिसे अक्सर केवल एक पृष्ठ पढ़कर ही समाज तय कर देता है कि वह कैसी स्त्री है। यह लेख किसी एक स्त्री की नहीं, बल्कि अनगिनत स्त्रियों की कहानी है जो अपने आँचल से आँसू पोछकर मुस्कराती हैं। समाज को यह चुप्पी सुननी होगी। यह कोई मौन नहीं, बल्कि एक ज्वालामुखी है जो कभी भी फूट सकता है। जब स्त्रियाँ कहती हैं, "अब यही मेरी दुनिया है," तो यह कोई संतोष नहीं, बल्कि एक ऐसा आत्मनिर्भर संघर्ष है, जिसमें उसने खुद को एक नई दुनिया मान लिया है — बिना शिकायत, बिना समर्थन, बिना अपेक्षा।
स्त्रियाँ जब चुपचाप घर संभालती हैं, दुख छुपा लेती हैं, हँसी ओढ़ लेती हैं, तो समाज समझता है कि उन्होंने हार मान ली। लेकिन सच्चाई यह है कि यह चुप्पी किसी अंत की नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत की भूमिका होती है। जब एक स्त्री मायके के बिना भी जीना सीख जाती है, तो समझिए उसने अपने भीतर एक नई दुनिया बसा ली है। वह अब न बेटी रही, न बहू — वह अब केवल एक औरत नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर अस्तित्व है।

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Web Title-This is my world now: A womans silent revolution
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