साहित्य अकादमी भारत की सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था मानी जाती रही है। यह केवल एक सरकारी निकाय नहीं बल्कि भाषाओं और साहित्य की विविध परंपराओं का प्रतीक भी है। ऐसे में जब इस संस्था के शीर्ष पदाधिकारी पर गंभीर यौन उत्पीड़न के आरोप लगते हैं और अदालत यह स्थापित कर देती है कि उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग किया है, तो यह केवल व्यक्तिगत नैतिक विफलता नहीं बल्कि पूरे साहित्यिक समाज पर धब्बा है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि अकादमी का सचिव यौन उत्पीड़न से महिलाओं की रक्षा अधिनियम के तहत नियोक्ता की श्रेणी में आता है और शिकायतकर्ता की बर्खास्तगी प्रतिशोध का परिणाम थी। अदालत ने उन्हें बहाल करने का आदेश दिया और यह भी माना कि अकादमी ने जाँच की निष्पक्ष प्रक्रिया को बाधित किया। यह टिप्पणी किसी साधारण प्रशासनिक गड़बड़ी की ओर इशारा नहीं करती बल्कि यह दर्शाती है कि संस्था के भीतर शक्ति का उपयोग न्याय की रक्षा के बजाय दमन के लिए किया गया।
पीड़िता के आरोप मामूली नहीं थे। अनचाहे स्पर्श, अश्लील टिप्पणियाँ और लगातार यौन दबाव जैसे अनुभव उन्होंने साझा किए। यह कोई एक बार की घटना नहीं बल्कि एक सिलसिला था। संस्थान के भीतर कई लोग इस वातावरण से परिचित थे फिर भी चुप्पी साधे रहे। यही चुप्पी उत्पीड़क को और निर्भीक बनाती है और पीड़िता को और अकेला कर देती है।
साहित्य की असली शक्ति उसकी नैतिकता में है। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
अगर साहित्यकार समाज के अन्याय पर कलम चलाते हैं लेकिन अपने ही घर के अन्याय पर चुप रहते हैं, तो साहित्य की विश्वसनीयता खो जाती है। जब तक आरोपी सचिव अपने पद पर बना रहता है तब तक अकादमी के किसी भी आयोजन में भागीदारी स्वयं कलंक का हिस्सा बनने जैसा होगा। पुरस्कार लेना, कविताएँ पढ़ना या गोष्ठियों में शिरकत करना मानो यह स्वीकार करना होगा कि हम उत्पीड़न को नजरअंदाज कर सकते हैं।
इस समय आवश्यकता है शून्य सहनशीलता की।
यौन उत्पीड़न और जातिगत उत्पीड़न जैसे अपराधों पर कोई समझौता नहीं हो सकता। जब संस्था का शीर्ष अधिकारी ही आरोपी हो और फिर भी पद पर बना रहे, तो यह संदेश जाता है कि संस्थान अपराध को ढकने के लिए तत्पर है। इससे न केवल पीड़िता हतोत्साहित होती है बल्कि अन्य महिलाएँ भी शिकायत दर्ज कराने से डरने लगती हैं। यह वातावरण पूरे साहित्यिक समाज के लिए घातक है।
और भी चिंताजनक यह है कि कुछ प्रकाशक ऐसे व्यक्तियों को अब भी मंच दे रहे हैं। उन्हें बड़े लेखक की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, उत्सवों और मेलों में सम्मानित किया जा रहा है।यह प्रवृत्ति केवल बिक्री और लाभ का मामला नहीं है, बल्कि यह उत्पीड़न की संस्कृति को सामाजिक मान्यता देने जैसा है।
ऐसे में लेखकों और पाठकों की ज़िम्मेदारी है कि वे ऐसे प्रकाशकों से सवाल पूछें। साहित्यिक गरिमा केवल शब्दों में नहीं बल्कि आचरण में भी झलकनी चाहिए।
यह समय लेखक समाज की अग्निपरीक्षा का है। क्या हम चुप रहेंगे और संस्था की रक्षा के नाम पर अन्याय को ढकेंगे, या न्याय और सम्मान के लिए खड़े होंगे। अकादमी की प्रतिष्ठा उसकी इमारतों और पुरस्कारों से तय नहीं होती, वह उसकी पारदर्शिता और नैतिक आचरण से तय होती है। अगर यह खो जाएगी तो सारे पुरस्कार और समारोह केवल खोखले अनुष्ठान रह जाएँगे।
लेखकों को अब साफ़ रुख अपनाना होगा। जब तक आरोपी पद पर है, तब तक अकादमी के किसी भी कार्यक्रम में भागीदारी नहीं होनी चाहिए। यह बहिष्कार केवल प्रतीकात्मक कदम नहीं बल्कि समाज को स्पष्ट संदेश देगा कि साहित्य अन्याय के साथ समझौता नहीं कर सकता।
आगे का रास्ता भी हमें मिलकर तय करना होगा। संस्थागत सुधार ज़रूरी है, शिकायत समितियों को स्वतंत्र बनाया जाए और उनकी कार्यवाही सार्वजनिक की जाए। लेखकों और पाठकों को चाहिए कि वे नैतिक बहिष्कार को आंदोलन की तरह चलाएँ।
प्रकाशकों से जवाबदेही माँगी जाए और पूरे सांस्कृतिक परिदृश्य को संवेदनशील बनाया जाए। यह केवल अकादमी का नहीं बल्कि पूरे समाज का सवाल है।
यह संकट हमें याद दिलाता है कि पद और सत्ता किसी को भी कानून और नैतिकता से ऊपर नहीं बना सकते। अगर आरोपी अपने पद पर बना रहता है तो यह केवल पीड़िता का नहीं बल्कि पूरे साहित्यिक समाज का अपमान है। लेखकों, कवियों, आलोचकों और पाठकों को अब मिलकर कहना होगा कि हम अन्याय के साथ खड़े नहीं हो सकते।
साहित्य तभी अपनी असली ताक़त दिखा पाएगा जब वह सत्ता से सवाल पूछेगा और शोषण के खिलाफ निर्भीक होकर खड़ा होगा।
अगर हम इस परीक्षा में असफल हुए तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें डरपोक और मौन समाज के रूप में याद करेंगी। लेकिन अगर हम साहस के साथ खड़े हुए तो साहित्य शब्दों के साथ-साथ न्याय और गरिमा का भी प्रहरी बन सकेगा। यही साहित्य की असली पहचान है और यही हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी।
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