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गौरी फिर आएगा? इतिहास की भूल और वर्तमान के सबक

Gauri will come again? Mistakes of history and lessons of the present - Hisar News in Hindi

ज़ादी के बाद भारत ने पाकिस्तान के साथ शांति स्थापित करने के अनेक प्रयास किए, समझौतों और संघर्ष विराम तक की पहल की, लेकिन पड़ोसी मुल्क की शत्रुतापूर्ण नीतियाँ और सीमा पर उसके आक्रमण थमने का नाम नहीं ले रहे। यह स्थिति इतिहास की उस भूल को दोहराती प्रतीत होती है, जो कभी पृथ्वीराज चौहान ने की थी। चौहान ने मोहम्मद गौरी को एक बार पराजित कर जीवनदान दिया, और यही दयालुता आगे चलकर उनके साम्राज्य के पतन का कारण बनी। यह ऐतिहासिक उदाहरण हमें सिखाता है कि शत्रु के प्रति अत्यधिक दया और बार-बार क्षमा करने की आदत दीर्घकालिक रूप से राष्ट्र के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है। इतिहास स्वयं एक जीवंत गाथा है, जो समय-समय पर हमें खतरों से आगाह करती है। इसकी चेतावनियों को अनदेखा करना किसी भी सभ्यता के पतन का प्रमुख कारण बन सकता है। पृथ्वीराज चौहान का दृष्टांत इसका ज्वलंत प्रमाण है। बार-बार शत्रु को माफ़ करने और उस पर दया दिखाने की भूल ने एक शक्तिशाली साम्राज्य को धूल में मिला दिया। यह केवल मध्यकालीन भारत की कहानी नहीं है, बल्कि आज के परिदृश्य में भी यह सबक उतना ही प्रासंगिक है। इतिहासकार पृथ्वीराज चौहान को उनकी अद्वितीय वीरता और अदम्य साहस के लिए याद करते हैं।
उन्होंने अनेक युद्धों में अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन किया, परंतु जब मोहम्मद गौरी का सामना हुआ, तो उनकी क्षमा करने की प्रवृत्ति उनके लिए घातक सिद्ध हुई। 1191 में तराइन के पहले युद्ध में चौहान ने गौरी को पराजित किया और उसे जीवनदान देकर एक गंभीर भूल की। अगले ही वर्ष, 1192 में गौरी ने फिर आक्रमण किया और इस बार चौहान को पराजित करने में सफल रहा। यह वह निर्णायक क्षण था जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया। आज के हालात पर यदि हम दृष्टि डालें, तो क्या हम भी उसी ऐतिहासिक भूल की ओर अग्रसर हैं?
बार-बार की नरमी, समझौतों पर अत्यधिक जोर और पिछली गलतियों से सबक न लेने की आदत कहीं न कहीं हमारी राष्ट्रीय शक्ति को कमजोर कर रही है। चाहे सीमा सुरक्षा का विषय हो या आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियाँ, हर बार की चुप्पी, द्विपक्षीय समझौते और शत्रुतापूर्ण कृत्यों को क्षमा कर देना हमारी स्थिति को कमजोर बना रहा है। वर्तमान में भारत भी बार-बार पाकिस्तान के साथ उसी भूल का शिकार होता दिख रहा है। बार-बार शांति वार्ताएँ आयोजित करना, संघर्षविराम समझौतों पर भरोसा करना, और आतंकवाद के हर हमले को लगभग अनदेखा कर देना, क्या हमारी छवि को एक कमजोर राष्ट्र के रूप में स्थापित नहीं कर रहा?
पाकिस्तान, जो लगातार हमारी सीमाओं पर घुसपैठ करता है, हमारे सैनिकों पर कायरतापूर्ण हमले करता है, और हमारे नागरिकों के विरुद्ध आतंकी गतिविधियों को प्रायोजित करता है, क्या उसे बार-बार माफ़ करना उचित है? क्या हमें इस सत्य का आभास नहीं है कि जिस प्रकार गौरी ने चौहान की सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाया, उसी प्रकार पाकिस्तान भी हमारी प्रत्येक माफ़ी और नरमी को हमारी कमजोरी के रूप में देख सकता है? यह समस्या केवल सीमा पर गोलीबारी या आतंकी हमलों तक सीमित नहीं है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक मंचों पर भी हम बार-बार शांति और समझौते की बात करते हैं, जबकि दूसरी ओर से विश्वासघात और आक्रमण की नीति निर्बाध रूप से जारी रहती है। यह हमारी सहनशीलता और शांति की भावना का अपमान है, जिसे बार-बार नज़रअंदाज़ करना एक गंभीर भूल साबित हो सकती है।
इस संदर्भ में अमेरिका का रवैया भी महत्वपूर्ण है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि अमेरिका ने विभिन्न मंचों पर पाकिस्तान का समर्थन किया है, चाहे वह सैन्य सहायता हो या वित्तीय मदद। अमेरिका ने कई अवसरों पर पाकिस्तान को अपने भू-राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल किया है, जबकि पाकिस्तान ने उस समर्थन का उपयोग भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए किया है। यह स्थिति हमें एक बार फिर सोचने पर विवश करती है – क्या हमें बार-बार माफ़ करने की नीति पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए? पाकिस्तान, जो आतंकवाद का सबसे बड़ा केंद्र बनकर उभरा है, उसकी सैन्य और आर्थिक सहायता करने वाला अमेरिका, क्या भारत के रणनीतिक हितों के विरुद्ध नहीं है? क्या यह उचित समय नहीं है कि हम अपनी विदेश नीति को और अधिक सशक्त और आत्मनिर्भर बनाएं, ताकि हमें किसी बाहरी शक्ति पर निर्भर न रहना पड़े?
इतिहास हमें स्पष्ट रूप से सिखाता है कि यदि हम अपने शत्रुओं की दुर्भावनापूर्ण मंशा को बार-बार अनदेखा करते रहेंगे, तो हमें उसी त्रासदी का सामना करना पड़ सकता है जो पृथ्वीराज चौहान ने झेली थी। बार-बार माफ़ करने की आदत एक वीर शासक को भी विवश बना सकती है, और समझौतों पर अत्यधिक निर्भरता हमारे राष्ट्रीय गौरव को मिटा सकती है। अब समय आ गया है कि हम अपने इतिहास से महत्वपूर्ण सबक लें और अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दें।
क्षमा एक उदात्त आदर्श हो सकता है, लेकिन जब बात राष्ट्रीय सम्मान और स्वाभिमान की हो, तब हमें पत्थर की तरह अडिग और लोहे की तरह कठोर बनना होगा। माफ़ी की जगह पराक्रम, और समझौते की जगह अटूट संकल्प ही भविष्य के संकटों से हमारी रक्षा कर सकते हैं। भारत को अपनी सुरक्षा को सर्वोपरि रखना चाहिए और शत्रु के समक्ष दृढ़ता से खड़ा होना चाहिए।

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