भिवानी। 22 अप्रैल की वो काली शाम, जब पहलगाम की बायसरन घाटी में टूरिस्टों पर बरसी आतंक की गोलियां... 26 मासूमों की जान गई, देश सदमे में डूबा, और सेना ने PoK में जाकर इसका जवाब भी दिया। लेकिन अब, घटना के एक महीने बाद, हरियाणा से राज्यसभा सांसद रामचंद्र जांगड़ा ने ऐसा बयान दे डाला, जिससे न सिर्फ जख्म हरे हो गए, बल्कि शोक की भावना पर भी सवाल खड़े हो गए।
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“सुहाग खोने वाली महिलाओं में वीरता नहीं थी...” इस एक लाइन में सांसद जी ने संवेदना, सम्मान और समझ – तीनों को एक झटके में रौंद डाला। उन्होंने कहा, अगर महिलाओं में 'वीरांगना जैसा जोश' होता, तो इतनी मौतें नहीं होतीं। यानी जो महिलाएं अपने पतियों को खो चुकी हैं, वो शायद और बहादुरी से पेश आतीं, तो कुछ बच सकता था।
ये वो वक्त है जब देश उम्मीद करता है कि नेता मरहम बनें, मगर बयान आग बन गया। किसी की विधवा को साहस की परिभाषा समझाना, क्या सत्ता की संवेदनहीनता का नया चेहरा है?
“अगर हाथ में डंडा होता तो तीनों आतंकी मर जाते”
सांसद जी ने अपने भाषण में ये भी जोड़ा कि अगर यात्री प्रधानमंत्री की ‘अग्निवीर योजना’ के तहत ट्रेनिंग लेकर आए होते, तो आतंकियों को घेर लेते। यानी टूरिस्ट अब बंदूक के साए में ही घाटी की खूबसूरती निहारें! यह सुझाव जितना हास्यास्पद है, उतना ही असंवेदनशील भी।
क्या अब से टूर पैकेज में AK-47 की ट्रेनिंग भी होगी?
क्या अब हर पर्यटक को सेना जैसी ट्रेनिंग दी जाएगी? और जब कोई ट्रेनिंग लेकर भी शहीद हो जाए, तब भी क्या उसकी शहादत को इसी तरह तोला जाएगा?
वीरता की परिभाषा – एक राजनेता की जुबानी
क्या वीरता केवल हथियार उठाना है? क्या अपने पति, भाई, बेटे को खोकर रोने वाली स्त्रियों की पीड़ा को ‘कमजोरी’ समझा जाए? क्या आंसू बहाना अब ‘कायरता’ हो गया?
सवाल जनता का है – जवाब क्या होगा?
क्या संवेदना पर बयानबाजी का अधिकार सांसदों को संसद देता है? क्या देश की असली ताकत जनता के संयम और सैनिकों की निस्वार्थ शहादत नहीं है?
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