हर साल जब संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) के परिणाम आते हैं, तो देश का एक बड़ा वर्ग उत्साहित होता है। कहीं उम्मीदें टूटती हैं, कहीं सपने पूरे होते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से एक नया और खतरनाक ट्रेंड भी देखने को मिल रहा है सफल अभ्यर्थियों की प्रतिभा और मेहनत पर चर्चा करने के बजाय, उनकी जाति, धर्म और आर्थिक पृष्ठभूमि को माइक्रोस्कोप से जांचा जा रहा है। और फिर उसी के आधार पर उनके संघर्ष की कहानी गढ़ी जाती है, सोशल मीडिया पर महिमामंडन या विवाद खड़ा किया जाता है।
एक तरफ़ सफल अभ्यर्थी अपनी मेहनत को सेलिब्रेट करना चाहते हैं, दूसरी तरफ़ समाज उन्हें एक 'ट्रॉफी' बना देता है या तो जातीय गौरव के नाम पर, या भावनात्मक बाज़ार के नाम पर।
क्या हम इतने खोखले हो गए हैं कि अब सफलता भी जाति की चश्मे से देखनी पड़ती है? एक छात्र जिसने वर्षों तक दिन-रात एक कर दिए, जो असफलताओं के बावजूद डटा रहा, जिसने निजी सुखों को छोड़ तपस्या की उसकी कहानी अब उसकी प्रतिभा नहीं, उसकी जातीय पहचान से मापी जाएगी? ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और न्यूज़ चैनल्स अब सबसे पहले पूछते हैं: "यह topper किस जाति से है?" उसके बाद आता है सवाल: "पिता क्या करते हैं?" फिर, अगर कहीं से भी किसान, मजदूर या निम्नवर्गीय पृष्ठभूमि जुड़ जाए, तो सफलता की कहानी में 'संघर्ष का मसाला' डालकर उसे और अधिक बिकाऊ बना दिया जाता है।
यह एक विचित्र विडंबना है कि अब बड़े-बड़े शहरों के पॉश इलाकों में एसी कमरों में पढ़ने वाले भी खुद को "किसान का बेटा" बताने लगे हैं। परिवार में कभी पुरखों ने खेती की हो, या मामूली ज़मीन हो, तो भी उसे किसान परिवार का बेटा घोषित कर दिया जाता है। असलियत यह है कि जिन किसानों की हालत आज भी बैंकों के कर्ज में दबी है, जिनके बच्चे आज भी टूटी हुई पाठशालाओं में पढ़ रहे हैं, वे इस 'किसान परिवार' की ब्रांडिंग का हिस्सा नहीं बन पाते।
यह नया "संघर्ष बेचो" मॉडल दरअसल एक बड़े मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय तबके का सोशल इमोशनल इंजीनियरिंग है।
जहां एक समय सिविल सेवा का मतलब होता था — समाज की बेहतरी के लिए समर्पित जीवन। अब इसका अर्थ बदलता दिख रहा है। अब टॉपर्स बनने के बाद तुरंत यूट्यूब चैनल खोलना, इंस्टाग्राम पर 'Ask Me Anything' सेशन करना, कोचिंग ब्रांड्स के विज्ञापनों में चमकना, किताबें लिखना और मोटिवेशनल स्पीच देना, ट्रेंड बन गया है। इसमें कोई बुराई नहीं है कि युवा अपनी सफलता का जश्न मनाएं या दूसरों को प्रेरित करें। लेकिन सवाल तब उठता है जब सेवा का भाव पीछे छूट जाए, और सेल्फ ब्रांडिंग ही प्राथमिक एजेंडा बन जाए।
UPSC का स्वरूप अब राजनीतिक लाभ का भी माध्यम बनता दिख रहा है। अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराएं, मीडिया हाउस और जातीय संगठन UPSC टॉपर्स को 'अपना' बताने की होड़ में लगे हैं।
कहीं "दलित गौरव" के नाम पर प्रचार हो रहा है, तो कहीं "सवर्ण शान" के नारे गढ़े जा रहे हैं। कोई "ओबीसी चमत्कार" कहता है, तो कोई "किसान पुत्री की उड़ान"। असल में इन सबमें एक साधारण सच्चाई गायब हो जाती है — मेहनत तो मेहनत होती है, न जाति देखती है, न मजहब, न वंश।
UPSC भारतीय लोकतंत्र की एक दुर्लभ उपलब्धि है जहां किसी जाति, धर्म, वर्ग से परे जाकर व्यक्ति के ज्ञान, समझ, सोच, तर्कशक्ति और निर्णय क्षमता को परखा जाता है। यह परीक्षा बार-बार साबित करती है कि देश के अंतिम छोर से भी प्रतिभाएं निकल सकती हैं। लेकिन, जब समाज खुद इस उपलब्धि को जातीय खांचों में तोड़ने लगे, तो यह लोकतंत्र की आत्मा पर एक आघात है।
असली संघर्ष वह है जो अनकहा रह जाता है। जो ग्रामीण बैकग्राउंड से आता है, लेकिन खुद को बेचने की कोशिश नहीं करता।
जो सोशल मीडिया पर अपने फोटोशूट्स और 'कहानी' पोस्ट नहीं करता। जो अपनी सफलता को निजी संतोष समझता है, न कि व्यापारिक ब्रांड। दूसरी ओर, जो संघर्ष को एक उत्पाद बना देता है, वही आज वायरल होता है। वही बड़ी-बड़ी कोचिंग कंपनियों के विज्ञापन में आता है। वही सोशल मीडिया स्टार बनता है। क्या UPSC टॉपर्स बनने का मकसद अभी भी वही है समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचना, न्याय का वितरण करना, प्रशासन में ईमानदारी लाना? या फिर अब यह एक वैकल्पिक 'सेलिब्रिटी करियर' बन चुका है?
यह चिंतन आवश्यक है, वरना एक दिन सिविल सेवा भी पूरी तरह से एक ग्लैमर इंडस्ट्री में तब्दील हो जाएगी। जहां मूल्य नहीं, ब्रांडिंग चलेगी; जहां सेवा नहीं, सेल्फी चलेगी।
देश को जरूरत है उन युवाओं की जो सफलता को अपने स्वार्थ से नहीं, अपने कर्तव्य से जोड़ें। जो जाति, धर्म या वर्ग से परे जाकर खुद को सिर्फ एक नागरिक के रूप में प्रस्तुत करें। जो यह समझें कि UPSC परीक्षा से भी बड़ी परीक्षा आगे आने वाली है। जब प्रशासनिक पद पर बैठकर, बिना भेदभाव के, बिना प्रचार के, निष्पक्ष सेवा देनी होगी। तभी इस देश का लोकतंत्र मजबूत रहेगा, और तब ही असली प्रतिभा का सम्मान होगा, बिना जाति, धर्म, पृष्ठभूमि के बंधन के।
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