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देश में नशे के सौदागरों का बढ़ता जाल

The growing network of drug dealers in the country - Bhiwani News in Hindi

भारत आज एक दोहरी लड़ाई लड़ रहा है एक तरफ तकनीक और विकास की उड़ान है, और दूसरी ओर समाज के भीतर नशे का अंधकार फैलता जा रहा है। नशा अब सिर्फ एक व्यक्तिगत बुराई नहीं रह गया, बल्कि यह एक संगठित उद्योग, एक अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र और एक सामाजिक महामारी का रूप ले चुका है। देश के गाँव से लेकर शहर तक, स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक, और अमीरों की पार्टियों से लेकर गरीबों की गलियों तक, नशे के सौदागर अपना जाल फैलाए बैठे हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि अब यह जाल केवल शराब या गांजे तक सीमित नहीं रहा। सिंथेटिक ड्रग्स, केमिकल नशे, हेरोइन, ब्राउन शुगर, कोकीन जैसे घातक पदार्थ अब भारत के युवाओं के जीवन को खोखला कर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली, मणिपुर, गोवा जैसे राज्यों में तो यह जहर सामाजिक ताने-बाने को चीर चुका है। एक ओर सरकार "युवाओं को स्किल्ड बनाने" की बात करती है, दूसरी ओर लाखों नौजवान नशे की गिरफ्त में अपनी ऊर्जा, जीवन और भविष्य गंवा रहे हैं। नशे के पीछे एक पूरा तंत्र सक्रिय है—पैसे के लिए इंसानियत का सौदा करने वाले ड्रग माफिया, पुलिस और राजनीति में मिलीभगत, विदेशों से आने वाली तस्करी की खेप, और स्थानीय स्तर पर युवाओं को इस दलदल में धकेलने वाले एजेंट। ये सब मिलकर देश को अंदर से खोखला कर रहे हैं।
यह कोई संयोग नहीं कि हर बड़ी ड्रग बरामदगी के पीछे किसी न किसी रसूखदार का नाम सामने आता है, लेकिन मामला वहीं दबा दिया जाता है। एक वर्ग ऐसा भी है जो नशे को "लाइफस्टाइल" का हिस्सा मानने लगा है। ऊंचे दर्जे की पार्टियों में ड्रग्स फैशन बन चुकी है। वहां कोई इसे सामाजिक अपराध नहीं मानता, बल्कि ‘कूलनेस’ का प्रतीक बना दिया गया है। वहीं दूसरी तरफ गरीब युवा—जो बेरोजगारी, हताशा और टूटी हुई उम्मीदों के शिकार हैं—उन्हें नशा एक अस्थायी राहत की तरह दिखता है। दोनों ही हालात समाज को विनाश की ओर ले जा रहे हैं।
स्कूलों और कॉलेजों में नशा जिस तरह से प्रवेश कर चुका है, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक गहरी चेतावनी है। कई रिपोर्टें बताती हैं कि स्कूल के बच्चे तक ड्रग्स की चपेट में हैं। छोटे-छोटे पाउच, चॉकलेट जैसे पैकेट्स, खुशबूदार पाउडर—इनके ज़रिए नशा परोसा जा रहा है। और जब बच्चे इसकी गिरफ्त में आते हैं, तो परिवार, शिक्षक और समाज—सभी असहाय हो जाते हैं। भारत के संविधान ने हमें एक ‘स्वस्थ राष्ट्र’ का सपना दिया था, लेकिन जिस देश के युवा ही बीमार और नशे में हों, उस राष्ट्र की कल्पना कैसे साकार होगी? युवा ही देश की रीढ़ होते हैं—यदि वही झुक जाएं, टूट जाएं या खोखले हो जाएं, तो देश भी खड़ा नहीं रह सकता।
नशा केवल शरीर को नहीं, आत्मा को भी मारता है। यह निर्णय क्षमता को खत्म करता है, रिश्तों को तोड़ता है, अपराध को जन्म देता है और समाज में हिंसा और उदासी का माहौल फैलाता है। नशे की लत में पड़ा व्यक्ति अपने परिजनों के लिए बोझ बन जाता है। वह चोरी करता है, झूठ बोलता है, आत्महत्या तक कर लेता है। यह एक मात्र स्वास्थ्य या क़ानून व्यवस्था की समस्या नहीं है—यह नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट है।
माफिया नेटवर्क में पुलिस और राजनीतिक संरक्षण की बात करना कोई षड्यंत्र नहीं है, बल्कि कई बार कोर्ट और जांच एजेंसियों के रिकॉर्ड में यह स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है। NDPS एक्ट (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act) जैसे कानून मौजूद हैं, लेकिन इनका क्रियान्वयन बेहद कमजोर और पक्षपाती है। कई मामलों में पकड़ में आए ड्रग तस्करों को तकनीकी खामियों के चलते छोड़ दिया जाता है। वहीं गरीब या छोटे उपयोगकर्ता जेल में सड़ते हैं।
सरकारें अक्सर ड्रग्स के खिलाफ "जागृति अभियान", "स्लोगन प्रतियोगिता", या "परेड" जैसे प्रतीकात्मक कार्यक्रम करती हैं, लेकिन सवाल है कि क्या इससे कुछ बदलता है? ज़रूरत है एक मजबूत नीति, ईमानदार क्रियान्वयन और सबसे बड़ी बात—राजनीतिक इच्छाशक्ति की। नशे की तस्करी अक्सर सीमावर्ती इलाकों से होती है—पंजाब-पाकिस्तान सीमा, मणिपुर-म्यांमार सीमा, गुजरात समुद्री तट और मुंबई बंदरगाह जैसे स्थानों से। इन इलाकों में हाई अलर्ट की जरूरत है, लेकिन अक्सर सुरक्षा तंत्र या तो लापरवाह होता है या भ्रष्ट।
पिछले कुछ वर्षों में टनों की मात्रा में ड्रग्स पकड़े जाने के बावजूद, ड्रग लॉर्ड्स पर कार्यवाही न के बराबर हुई है। इससे अपराधियों का मनोबल और बढ़ता है। इसमें मीडिया की भूमिका भी कमज़ोर रही है। कुछ चुनिंदा मामलों में मीडिया टीआरपी के लिए "ड्रग्स ड्रामा" दिखाता है, लेकिन अधिकतर समय वह इस गंभीर मुद्दे को उपेक्षित छोड़ देता है। और जब बॉलीवुड जैसी चमकती दुनिया में ड्रग्स की चर्चा होती है, तो उसे भी ‘गॉसिप’ बना दिया जाता है, असल सामाजिक विमर्श नहीं। इस पूरे संकट का सबसे दुखद पहलू यह है कि इससे जुड़ा व्यक्ति अकेला नहीं मरता—उसके साथ पूरा परिवार, और धीरे-धीरे एक पीढ़ी मुरझा जाती है।
मां-बाप अपनी औलाद को नशे में खोते हैं, भाई-बहन रिश्तों की राख में बदल जाते हैं, और गांव-शहर अपने युवाओं को खोकर बस मौन शोक में डूब जाते हैं। समाधान केवल दवाओं या जेलों में नहीं है। समाधान है—सशक्तिकरण में, संवाद में, शिक्षा में, और सामूहिक सामाजिक प्रयास में। हर पंचायत, हर स्कूल, हर मोहल्ले में नशे के खिलाफ ईमानदार मुहिम चलानी होगी। युवा मंडलों, महिला समूहों और शिक्षकों को इस मुद्दे पर नेतृत्व देना होगा।
समाज को यह समझना होगा कि नशा केवल "व्यक्ति की कमजोरी" नहीं है, बल्कि यह एक षड्यंत्र है—जिसका शिकार पूरा समाज बन सकता है। हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनानी होगी जो युवाओं को केवल परीक्षा पास करने के लिए नहीं, बल्कि जीवन जीने की समझ दे। जीवन के संघर्षों से लड़ने का हौसला दे, असफलता को स्वीकार करने की शक्ति दे और आत्म-नियंत्रण का संस्कार दे। माता-पिता को भी बच्चों की मानसिक स्थिति, व्यवहार और संगति पर सतर्क रहना होगा।
संवाद और विश्वास के बिना कोई समाधान संभव नहीं। डर या दंड से बच्चे छिपते हैं, लेकिन संवाद से खुलते हैं। और अंततः, जब तक समाज नशे को "अपराध" की तरह नहीं, बल्कि एक "आपदा" की तरह देखेगा—जिसमें पीड़ित को मदद और माफिया को सज़ा मिलनी चाहिए—तब तक यह जहर फैलता रहेगा। नशा एक धीमा ज़हर है—जो शरीर से पहले सोच को मारता है। आज ज़रूरत है उस सोच को जगाने की, जो कहे—नशा छोड़ो, जीवन चुनो।

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Web Title-The growing network of drug dealers in the country
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