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बढ़ती छात्र आत्महत्याएं : कानून हैं, लेकिन संवेदना कहाँ है ?

Rising student suicides: There are laws, but where is the compassion? - Bhiwani News in Hindi

भारत जैसे युवा देश के लिए यह एक शर्मनाक सच्चाई है कि यहाँ हर साल हज़ारों विद्यार्थी पढ़ाई, प्रतिस्पर्धा और सामाजिक दबाव के बोझ तले अपनी जान दे देते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के अनुसार 2023 में 13,000 से अधिक छात्र आत्महत्याएँ दर्ज की गईं — यानी हर 40 मिनट में एक विद्यार्थी अपनी ज़िंदगी खत्म कर रहा है। यह सिर्फ़ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की नाकामी का सबूत है जो बच्चों को बचाने के बजाय उन्हें अंधे मोड़ पर छोड़ देती है। सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई कानून और नीतियाँ बनाईं हैं — जैसे मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 और राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम नीति 2021। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये कागज़ों पर लिखे कानून ज़मीन पर किसी बच्चे को सच में बचा पा रहे हैं? मेंटल हेल्थकेयर एक्ट 2017 का मकसद था कि आत्महत्या का प्रयास अब अपराध नहीं माना जाएगा, बल्कि इसे मानसिक संकट के रूप में देखा जाएगा। यानी अगर कोई बच्चा आत्महत्या की कोशिश करता है, तो उसे सज़ा नहीं, बल्कि सहारा दिया जाएगा। यह बहुत बड़ी पहल थी, क्योंकि इससे पहले ऐसे मामलों में पुलिस कार्रवाई होती थी, जिससे पीड़ित और परिवार दोनों और टूट जाते थे। कानून ने यह भी कहा कि हर नागरिक को मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकार होगा। यानी स्कूलों, कॉलेजों और कार्यस्थलों पर काउंसलिंग और सहायता उपलब्ध कराई जाएगी। पर आज भी सच्चाई यह है कि देश के अधिकांश स्कूलों और कॉलेजों में कोई प्रशिक्षित काउंसलर तक नहीं हैं। 2023 में एम्स द्वारा किए गए सर्वे में पाया गया कि 70 प्रतिशत कॉलेजों में कोई मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ मौजूद नहीं है।
ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्थिति और भी खराब है। यानी कानून बना, लेकिन उसके लिए जो आधारभूत ढांचा चाहिए था, वो कभी तैयार नहीं हुआ। 2021 में सरकार ने राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम नीति जारी की। इस नीति में कहा गया कि आत्महत्या एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है और इसके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण विभागों को मिलकर काम करना चाहिए। इसमें “हाई-रिस्क ग्रुप” जैसे छात्रों, किसानों और प्रवासी मजदूरों की पहचान कर, उनके लिए रोकथाम तंत्र बनाने की बात कही गई थी।
कुछ राज्यों ने इसे गंभीरता से लिया भी। जैसे केरल और महाराष्ट्र में स्कूल शिक्षकों को यह सिखाया गया कि वे छात्रों में अवसाद या निराशा के संकेत पहचान सकें। कुछ जगहों पर “स्कूल काउंसलिंग सेल” भी बने। लेकिन पूरे देश की तस्वीर देखें तो 40 प्रतिशत ज़िलों में अब भी कोई “सुसाइड प्रिवेंशन सेल” नहीं बना है। इस नीति के लिए अलग से कोई बजट तय नहीं किया गया। परिणाम यह हुआ कि यह नीति भी सरकारी फाइलों में एक और दस्तावेज बनकर रह गई।
कानूनों और नीतियों की सीमाओं से आगे जाकर हमें यह समझना होगा कि आत्महत्या का कारण सिर्फ मानसिक बीमारी नहीं, बल्कि समाज का बढ़ता असंवेदनशील माहौल भी है। कोचिंग सेंटर्स की दीवारों पर “IIT or Nothing” जैसे नारे लिखे होते हैं। हर बच्चा रैंक और रिज़ल्ट की दौड़ में फँस गया है। उसे बचपन की जगह एक ‘प्रोजेक्ट’ बना दिया गया है। बहुत से माता-पिता अपने सपने बच्चों पर थोप देते हैं।
असफलता को अपमान समझा जाता है। घर में बातचीत के बजाय सवाल-जवाब होता है — “कितने नंबर आए?” “अगले साल क्या करोगे?” यह भावनात्मक दूरी बच्चों को भीतर से तोड़ देती है। अब असफलता छिपाना भी मुश्किल हो गया है। इंस्टाग्राम और रीलों की दुनिया में हर कोई “सफल” दिखना चाहता है। जो नहीं दिखा पाता, वह खुद को असफल मान लेता है। किसी स्कूल में खेल का मैदान नहीं तो लोग शिकायत करते हैं, लेकिन काउंसलर नहीं है तो कोई नहीं पूछता। बच्चे को “तनावग्रस्त” कहने पर आज भी परिवार उसे “कमज़ोर” समझता है।
मानसिक स्वास्थ्य आज भी कलंक बना हुआ है। कानूनों और नीतियों से आगे बढ़कर अब हमें कुछ व्यावहारिक, संवेदनशील और स्थायी उपाय अपनाने की ज़रूरत है। हर स्कूल और कॉलेज में प्रशिक्षित काउंसलर अनिवार्य होने चाहिए। सरकार चाहे तो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत मनोवैज्ञानिकों की नियुक्ति कर सकती है। टेली-काउंसलिंग की सुविधा भी दूर-दराज़ क्षेत्रों तक पहुँचाई जा सकती है। मानसिक स्वास्थ्य को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। बच्चों को यह सिखाना ज़रूरी है कि असफलता अंत नहीं है।
दिल्ली सरकार के “हैप्पीनेस करिकुलम” की तरह सभी राज्यों में “लाइफ स्किल्स” और “इमोशनल एजुकेशन” को अनिवार्य किया जा सकता है। हर माता-पिता और शिक्षक को यह समझना होगा कि उनकी बातों का बच्चों पर कितना असर पड़ता है। यदि कोई बच्चा अलग-थलग रह रहा है, बात नहीं कर रहा, या अचानक व्यवहार बदल रहा है — तो यह संकेत है कि उसे मदद की ज़रूरत है। आज हर छात्र के पास मोबाइल है। अगर उसी से वह मनोवैज्ञानिक सहायता पा सके तो कई जानें बच सकती हैं। “किरण हेल्पलाइन” जैसी पहल को और मज़बूत करने की ज़रूरत है।
मीडिया को भी अपनी भूमिका समझनी होगी। आत्महत्या की खबरों को सनसनी बनाकर दिखाने के बजाय, मीडिया को यह दिखाना चाहिए कि कैसे मदद ली जा सकती है। फिल्मों और सोशल मीडिया को भी “सफलता या मृत्यु” वाली सोच से बाहर लाना होगा। सरकार के हर जिले में यह रिपोर्ट होनी चाहिए कि कितने स्कूलों में काउंसलर हैं, कितनी आत्महत्या की घटनाएँ हुईं और कौन-से कदम उठाए गए। जवाबदेही के बिना कोई नीति सफल नहीं होती। कानून और नीतियाँ दिशा दिखा सकती हैं, लेकिन वे संवेदना नहीं जगा सकतीं। वह समाज को खुद करनी होगी।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि बच्चा “रैंक” नहीं, “इंसान” है। उसकी आँखों में सिर्फ़ डिग्री नहीं, सपने भी हैं — और उन सपनों को असफलता से नहीं, प्यार और सहारे से संभाला जा सकता है। कोटा, दिल्ली, पटना या हैदराबाद — हर शहर से आती आत्महत्याओं की खबरें हमें झकझोरती हैं, लेकिन कुछ दिन बाद हम भूल जाते हैं। जबकि हर बच्चा जो चला गया, वह हमारे समाज का आईना था — वह यह कह गया कि “तुमने मुझे सुना नहीं।”
भारत में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 और राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम नीति 2021 जैसी पहलें सही दिशा में कदम हैं, लेकिन ये तब तक अधूरी रहेंगी जब तक समाज, परिवार और शिक्षा संस्थान मिलकर मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं देंगे। हर आत्महत्या एक असफल नीति नहीं, बल्कि असफल संवेदना की कहानी है। समाधान किसी नए कानून में नहीं, बल्कि इस सोच में है कि असफलता कोई अंत नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत है।

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