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डिग्री से दक्षता तक : शिक्षा प्रणाली को उद्योग से जोड़ने की चुनौती

From degrees to skills: The challenge of connecting the education system to industry - Bhiwani News in Hindi

भारत आज दुनिया की सबसे बड़ी युवा जनसंख्या वाला देश है। यह जनसांख्यिकीय लाभांश एक वरदान बन सकता है—यदि हम इसे कुशलता, योग्यता और आधुनिक ज़रूरतों के मुताबिक तैयार करें। परंतु अफसोस, हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली आज एक गहरे संकट से जूझ रही है। विश्वविद्यालयों में जो पढ़ाया जा रहा है और उद्योगों को जो चाहिए—इन दोनों के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। यह खाई केवल छात्रों की रोजगार क्षमता को ही नहीं, बल्कि भारत की आर्थिक प्रगति और वैश्विक प्रतिस्पर्धा को भी गंभीर रूप से बाधित कर रही है। इंडिया स्किल्स रिपोर्ट 2024 के अनुसार, भारत में केवल 45.9% स्नातक ही रोजगार के योग्य पाए गए। इसका अर्थ यह है कि हर दो में से एक छात्र, जिसने उच्च शिक्षा प्राप्त की है, वह नौकरी के लायक कौशलों से लैस नहीं है। तकनीकी संस्थानों की स्थिति भी निराशाजनक है। नैसकॉम की रिपोर्ट के अनुसार, केवल 25% इंजीनियरिंग स्नातक ही आईटी सेक्टर में कार्य के लिए उपयुक्त पाए गए। यह स्थिति न केवल शिक्षा प्रणाली की विफलता है, बल्कि देश के करोड़ों युवाओं के सपनों के टूटने की त्रासदी भी है। इस समस्या की जड़ है — सैद्धांतिक और अकादमिक दृष्टिकोण वाली शिक्षा प्रणाली, जो व्यावहारिक दुनिया की ज़रूरतों से कटी हुई है।
विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम दशकों पुराना है, जो आज के डेटा-संचालित, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस-प्रेरित, नवाचार-प्रधान उद्योग की ज़रूरतों से मेल नहीं खाता। आज की नौकरियाँ पहले जैसी नहीं रहीं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग, डेटा एनालिटिक्स, ब्लॉकचेन, साइबर सुरक्षा और ग्रीन टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्र तेज़ी से बढ़ रहे हैं। लेकिन इन उभरते क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रमों में ज़रूरी बदलाव नहीं हो पा रहा है। उदाहरणस्वरूप, IIT हैदराबाद ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में बी.टेक प्रोग्राम शुरू किया है — यह एक दूरदर्शी कदम है। लेकिन अधिकांश विश्वविद्यालय अब भी पुरानी पाठ्य पुस्तकों और व्याख्यानों पर निर्भर हैं। यह स्थिति केवल तकनीकी पाठ्यक्रमों की नहीं है। वाणिज्य, मानविकी, समाजशास्त्र, मीडिया, कानून और अन्य विषयों में भी छात्रों को भविष्य की ज़रूरतों से लैस नहीं किया जा रहा है।
परिणामस्वरूप, वे न तो नौकरी के लिए तैयार होते हैं, न ही नवाचार या उद्यमिता की दिशा में सोच पाते हैं। इस संकट का समाधान केवल एक तरफ़ा नहीं हो सकता। इसके लिए नीति, संस्थान और उद्योग—तीनों को एक साथ आगे आना होगा। हर 2-3 वर्षों में उद्योग विशेषज्ञों की मदद से पाठ्यक्रम का पुनरीक्षण किया जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि विषयवस्तु समय के साथ प्रासंगिक बनी रहे। शिक्षकों को उद्योगों में इंटर्नशिप या एक्सपोज़र दिया जाए ताकि वे छात्रों को वर्तमान परिदृश्य के अनुरूप शिक्षा दे सकें। सभी विश्वविद्यालयों को अपने पाठ्यक्रम में उद्योगिक इंटर्नशिप, लाइव प्रोजेक्ट्स और केस स्टडी आधारित मूल्यांकन शामिल करना चाहिए। तकनीकी और मानवीय विषयों का समावेश: केवल तकनीकी कौशल नहीं, बल्कि सॉफ्ट स्किल्स, संवाद क्षमता, टीमवर्क, सहानुभूति और नेतृत्व जैसे तत्वों का भी विकास किया जाना चाहिए।
कंपनियाँ विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर रिसर्च लैब्स, इनोवेशन हब और स्टार्टअप इन्क्यूबेशन सेंटर स्थापित करें — जैसा कि IIT मद्रास का रिसर्च पार्क इसका उदाहरण है। भारत को यह समझना होगा कि अकेले तकनीकी शिक्षा से संपूर्ण विकास संभव नहीं। हमें वैश्विक मॉडलों से सीखना चाहिए। जर्मनी का "ड्यूल एजुकेशन सिस्टम" एक शानदार उदाहरण है, जहाँ सिद्धांत और व्यवहार का समन्वय छात्रों को उद्योग के लिए तैयार करता है। इसी प्रकार, अमेरिका में सामुदायिक कॉलेजेज़ और स्टार्टअप एक्सेलरेटर शिक्षा को उद्योग से जोड़ते हैं। सिंगापुर जैसे देश में हर तीन साल में कौशल समीक्षा होती है और शिक्षा उद्योग के सहयोग से चलती है। भारत को भी एक ऐसा ही "डायनामिक करिकुलम फ्रेमवर्क" अपनाने की ज़रूरत है। हालांकि इस दिशा में कदम उठाने के अपने खतरे भी हैं।
यदि हम शिक्षा को केवल उद्योग की आवश्यकता तक सीमित कर दें, तो हम भविष्य के नागरिक नहीं, केवल कर्मचारी तैयार करेंगे। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति हो सकती है। अत्यधिक व्यावसायिकता छात्रों की रचनात्मकता और नैतिक सोच को कुंद कर सकती है। साहित्य, दर्शन, समाजशास्त्र जैसे विषयों को अगर 'गैर-उपयोगी' मानकर नज़रअंदाज़ किया गया, तो शिक्षा अपने मूल उद्देश्य से भटक जाएगी। लगातार पाठ्यक्रमों में बदलाव, तकनीकी उन्नयन और उद्योग सहभागिता विश्वविद्यालयों के लिए महंगा साबित हो सकता है, जिससे ग्रामीण और वंचित तबकों की पहुंच सीमित हो सकती है।
भारत सरकार ने ‘स्किल इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’, और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसी योजनाएँ चलाई हैं। इन अभियानों की सफलता तभी संभव है जब उच्च शिक्षा प्रणाली कुशल, समावेशी और उद्यमशील मानव संसाधन तैयार करे। यह तभी होगा जब विश्वविद्यालय शिक्षा को उद्योग की ज़रूरतों से जोड़ने की रणनीति राष्ट्रीय प्राथमिकता बने। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने इस दिशा में कुछ सकारात्मक संकेत दिए हैं — जैसे लचीलापन, मल्टीडिसिप्लिनरी दृष्टिकोण, और स्किल आधारित शिक्षा की बात। लेकिन ज़मीनी स्तर पर इन सुधारों को पूरी तरह लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, वित्तीय निवेश और संस्थागत समन्वय की आवश्यकता है।
भारत अगर 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने का सपना देख रहा है, तो हमें अपने विश्वविद्यालयों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करना होगा। इसका अर्थ है — शिक्षा प्रणाली को उद्योग की आवश्यकताओं से इस प्रकार जोड़ना कि वह केवल नौकरी के लिए नहीं, नवाचार, उद्यमिता और सामाजिक नेतृत्व के लिए भी तैयार करे। यह संरेखण केवल तकनीकी प्रशिक्षण तक सीमित नहीं होना चाहिए। इसमें नैतिकता, सहानुभूति, संवाद, और जिम्मेदारी जैसे मूल्यों को भी सम्मिलित करना होगा। तभी हम एक ऐसा भारत बना पाएँगे जो केवल आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं, बल्कि बौद्धिक रूप से भी सक्षम, सामाजिक रूप से समावेशी और सांस्कृतिक रूप से सशक्त होगा।

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Web Title-From degrees to skills: The challenge of connecting the education system to industry
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