हर साल जब रबी की फसल खेतों में सुनहरे रंग बिखेरती है और किसान की आंखों में सालभर की मेहनत की चमक उतरती है, तभी कहीं किसी गांव से धुएं का काला गुबार उठता है—फसल में लगी आग का। यह आग सिर्फ खेत को नहीं जलाती, यह किसान की आत्मा को भस्म कर देती है। भारत के ग्रामीण परिदृश्य में यह कोई नई घटना नहीं, बल्कि एक भीषण और बढ़ती हुई समस्या है जो नीतियों की लाचारी, तकनीकी उपेक्षा और प्रशासनिक सुस्ती की जिंदा मिसाल बन चुकी है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के अनुसार, भारत में हर साल हज़ारों एकड़ की फसल आग की भेंट चढ़ जाती है। अकेले उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और मध्य प्रदेश में अप्रैल से जून के बीच सैकड़ों घटनाएं सामने आती हैं। 2024 में पंजाब के बरनाला ज़िले में एक ही दिन में 50 से अधिक फसल अग्निकांड दर्ज किए गए थे। पर इन आँकड़ों के पीछे जो दर्द है, वह किसी सरकारी प्रेस रिलीज़ में दर्ज नहीं होता। किसान महीनों तक खेत में सुबह-शाम खटता है, उधारी में बीज, खाद, पानी और मजदूरी का इंतज़ाम करता है, और जब फसल तैयार होती है, तो एक चिंगारी सब खत्म कर देती है।
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ग्रामीण इलाकों में बिजली वितरण प्रणाली इतनी जर्जर है कि खुले खेतों में तारों का गिरना आम बात है। गर्मियों में बढ़ा हुआ लोड और पुराने ट्रांसफार्मर शॉर्ट सर्किट को बढ़ावा देते हैं। खेतों के पास कूड़ा जलाना, बीड़ी-सिगरेट फेंकना, या आग से सूखी झाड़ियों की सफाई करना एक चिंगारी को आग में बदल देता है। कई बार आपसी दुश्मनी या जमीन के झगड़ों में जानबूझकर फसलों को आग लगा दी जाती है। अत्यधिक तापमान, तेज़ हवाएं और सूखी फसलें आग को तेजी से फैलाने में सहायक बनती हैं।
बात सिर्फ मुआवज़े की नहीं है। जब कोई किसान देखता है कि उसका खेत, उसकी मेहनत, उसकी उम्मीदें जल रही हैं, तो वह भीतर से टूट जाता है। कई किसानों की आत्महत्याएं इसी आग के बाद दर्ज हुई हैं।
हरियाणा के कैथल ज़िले में 2023 में एक किसान ने अपने खेत में आग लगने के बाद आत्महत्या कर ली थी। मुआवज़ा 10 हज़ार रुपए आया, पर घर में खाने को रोटी नहीं थी।
सरकारी मुआवज़ा योजनाएं खेत की जली भूमि के अनुसार तय होती हैं। लेकिन जमीन का निरीक्षण पटवारी और तहसीलदार करते हैं, जो अक्सर हफ्तों बाद आते हैं। छोटे किसानों को 4-5 हज़ार रुपये प्रति एकड़ मिलते हैं, वह भी महीनों बाद। फसल बीमा योजनाएं भी अधिकतर कागज़ी हैं। कई किसान न तो पॉलिसी की शर्तें समझते हैं और न ही दावे की प्रक्रिया।
बीमा कंपनियां मौसम का डेटा दिखाकर दावा खारिज कर देती हैं—"आग तो मौसम का हिस्सा नहीं थी।"
अब वक्त है कि हम 'राहत' की बजाय 'रोकथाम' की बात करें। आधुनिक तकनीक जैसे थर्मल सेंसर, ड्रोन निगरानी और अलार्म सिस्टम फसलों में आग का पता समय रहते लगा सकते हैं। प्रत्येक ब्लॉक स्तर पर मोबाइल दमकल गाड़ियां और गांव स्तर पर स्वयंसेवी अग्निशमन दल गठित किए जाने चाहिए। खेतों में जाने वाली बिजली लाइनों को भूमिगत करना या उनके नियमित रखरखाव की जवाबदेही तय करनी चाहिए। खेतों के पास आग से संबंधित कार्य न करने, कूड़ा जलाने की रोकथाम, और फायर सेफ्टी प्रशिक्षण बेहद ज़रूरी है।
जिन मामलों में साजिश या शरारत शामिल हो, वहां पुलिस तुरंत संज्ञान ले और मुकदमा दर्ज हो। फसल बीमा को आधार और मोबाइल से जोड़कर दावा प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी बनाया जाए।
मीडिया जब किसी फसल में आग की खबर दिखाता है, तो अक्सर दृश्यात्मक सनसनी होती है—जलते खेत, रोता किसान। लेकिन इसके बाद क्या? क्या कभी किसी चैनल ने यह दिखाया कि मुआवज़ा मिला या नहीं? पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया या नहीं? दोषी पकड़ा गया या मामला ठंडे बस्ते में चला गया? फसलों में लगती आग कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, यह एक व्यवस्थागत विफलता है। और इस विफलता की जिम्मेदारी सिर्फ किसान पर नहीं, पूरे समाज पर है।
जब खेत जलता है, तो केवल किसान का नुकसान नहीं होता, वह पूरे देश की खाद्य सुरक्षा पर सवाल खड़ा करता है। यह आग उस थाली में पहुँचने से पहले ही अनाज को राख कर देती है। ज़रूरत इस बात की है कि हम किसान को सिर्फ "अन्नदाता" न कहें, बल्कि उसे सुरक्षा, सम्मान और तकनीक के संसाधन भी दें। फसलों में लगती आग अब चेतावनी है—अगर अब भी हम नहीं चेते, तो कल सिर्फ खेत नहीं जलेंगे, समाज की आत्मा भी राख हो जाएगी।
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