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नतीजा-ए-जिहाद : जैसा इराक़ में देखा गया

Result-e-Jihad: As seen in Iraq - Ambala News in Hindi

राक़ के बग़दाद, नजफ़, बेबीलोन, करबला, मौसूल व सामरा जैसे कई ऐतिहासिक शहरों का भ्रमण करने का पिछले दिनों सौभाग्य प्राप्त हुआ। यही वह इराक़ था जहाँ आईएसआईएस जैसे दुर्दांत आतंकी संगठन ने लाखों शियाओं, यज़ीदी व ईसाई समुदाय के लोगों तथा उनकी विचारधारा का समर्थन नहीं करने वाले स्थानीय उदारवादी सुन्नियों को निशाना बनाया और बेरहमी से हत्याएं कीं। हाथों में काले रंग का इस्लामी कलमा लिखा झंडा लेकर इन्हीं राक्षसों ने यज़ीदी और अन्य समुदायों की महिलाओं और बच्चों का अपहरण किया उनसे यौन दासता कराई और जबरन सैन्य भर्ती के लिए उन्हें अपना निशाना बनाया। 2014 से 2019-20 के मध्य का यह वही दौर था जबकि आईएसआईएस द्वारा अपह्रत लोगों को एक लाइन से खड़ा कर गोली मारने या तलवार से उनके सिर क़लम करने जैसी भयावह वीडियो दुनिया को भयभीत करने के लिये सार्वजनिक की जाती थी और इस्लाम को क्रूरता के पर्याय के रूप में साज़िशन पेश किया जाता था।
आईएसआईएस अर्थात इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड सीरिया का मक़सद इराक़ और सीरिया में सख़्त शरिया क़ानूनों पर आधारित एक इस्लामिक ख़लीफ़ा स्थापित करना था। इराक़ी आतंकवादी अबू बक्र अल-बग़दादी इस्लामिक स्टेट (आईएस) का संस्थापक नेता था। उसने 2014 में स्वयं को ख़लीफ़ा घोषित किया था। इसका लक्ष्य इराक़ और सीरिया में बड़े क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर वहां अपनी कट्टरपंथी विचारधारा के आधार पर शासन स्थापित करना था। उस दौरान आई एस आई एस ने उन समुदायों को निशाना बनाया, जिन्हें वे "काफ़िर " या "अपवित्र" मानते थे। उन्होंने इसका उद्देश्य क्षेत्र को "शुद्ध" करना बताया था, जिसमें शिया मुसलमानों, यज़ीदी, ईसाई, और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना शामिल था।
दरअसल आईएसआईएस ने अल-क़ायदा से अलग होकर वैश्विक जिहादी आंदोलन में नेतृत्व हासिल करने की कोशिश की थी। उसने विदेशी लड़ाकों को भर्ती किया और अपनी विचारधारा को फैलाने के लिए प्रचार तंत्र का उपयोग किया। आईएस ने इराक़ और सीरिया में उस समय के सांप्रदायिक तनावों और तत्कालीन कमज़ोर शासन का फ़ायदा उठाया, विशेष रूप से अल्पसंख्यक सुन्नी समुदाय की उन शिकायतों व समस्याओं को भुनाया जो शिया-प्रधान सरकारों से नाख़ुश थे।
आईएस की क्रूरता से भरे उस दौर में आने वाले वीडिओज़ पूरे विश्व में इस्लाम की छवि को धूमिल कर रहे थे। और सशस्त्र आईएस बग़दाद पर लगभग पूर्ण नियंत्रण हासिल कर चुकने के बाद सामरा व मोसूल जैसे ऐतिहासिक व पवित्र शहरों पर क़ब्ज़ा जमाते हुये भारी बमबारी व हत्याएं करते हुये करबला और नजफ़ पर अपनी गिद्ध दृष्टि गड़ा चुका था। इसी बीच शिया इस्लाम के प्रमुख धार्मिक विद्वानों में से एक आयतुल्लाह अली अल-सीस्तानी, जोकि उस समय इराक के नजफ़ में ही रहते थे, ने 2014 में आई एस के विरुद्ध 'जिहाद' शुरू करने का फ़तवा जारी कर दिया। इस फ़तवे में आयतुल्लाह सीस्तानी ने सभी इराक़ी नागरिकों, विशेष रूप से शिया समुदाय, से आई एस के विरुद्ध हथियार उठाने और देश की रक्षा करने का आह्वान किया।
आयतुल्लाह ने सुन्नी समुदाय को भी इस लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने इसे "वाजिब किफ़ायी" (सामूहिक कर्तव्य) जिहाद के रूप में वर्णित किया। जिसका अर्थ था कि यह हर सक्षम व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह देश और धार्मिक स्थलों की रक्षा के लिए तब तक लड़े, जब तक कि पर्याप्त संख्या में लोग इस कर्तव्य को पूरा न करें। आयतुल्लाह सीस्तानी ने अपने फ़तवे में कहा कि आई एस के विरुद्ध लड़ना न केवल धार्मिक कर्तव्य है, बल्कि इराक़ की संप्रभुता और नागरिकों की सुरक्षा के लिए भी यह नितांत आवश्यक है। उन्होंने जिहादी स्वयंसेवकों से इराक़ी सुरक्षा बलों में शामिल होने और आतंकवादियों के ख़िलाफ़ लड़ने का आग्रह किया।
आईएस के विरुद्ध जिहाद के इस फ़तवे के परिणामस्वरूप लाखों इराक़ी , विशेष रूप से शिया युवा स्वयंसेवक के रूप में सामने आए और पॉपुलर मोबिलाइज़ेशन फोर्सेज़ पी एम एफ़ या हशद अल-शाबी का गठन हुआ। पी एम एफ़ ने इराक़ी सेना के साथ मिलकर आई एस के विरुद्ध तिकरित, फलूजा, और मोसुल की मुक्ति कराने जैसी कई महत्वपूर्ण लड़ाइयों में हिस्सा लिया। आयतुल्लाह सीस्तानी ने पी एम एफ़ और अन्य लड़ाकों को यह निर्देश दिया कि वे युद्ध के दौरान क्रूरता या बदले की भावना से काम न करें, बल्कि इस्लामी नैतिकता और क़ानून का पालन करें।
आयतुल्लाह सीस्तानी का जिहाद का आह्वान रक्षात्मक प्रकृति का था। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह जिहाद आक्रामक नहीं, बल्कि आत्मरक्षा और धार्मिक स्थलों, जैसे नजफ़ और करबला में पवित्र रौज़ों की रक्षा के लिए था। उन्होंने यह भी ज़ोर दिया कि लड़ाई में शामिल लोगों को मानवाधिकारों और युद्ध के इस्लामी नैतिक नियमों का पालन करना चाहिए। जैसे कि किसी गैर-लड़ाकों को नुक़सान न पहुंचाया जाए। इस दौरान सीस्तानी ने अपने संदेशों में बार-बार शिया-सुन्नी एकता पर बल दिया और कहा कि आई एस न केवल शिया समुदाय, बल्कि सभी इराक़ियों और मानवता व इस्लाम के लिए ख़तरा है।
आईएस ने 2014-15 में इराक़ और सीरिया में अपने क़ब्ज़े वाले क्षेत्रों में यज़ीदी, ईसाई, और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की हज़ारों महिलाओं और लड़कियों को भी अग़वा किया था। ख़ासकर अगस्त 2014 में सिंजार पर हमले के दौरान लगभग 7,000 यज़ीदी महिलाओं और लड़कियों को बंधक बनाया गया था। इनमें से कई को "सेक्स स्लेव" के रूप में बेचा गया अनेक को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया गया व क्रूर यातनाएं दी गईं। इस दौरान पी एम एफ़ द्वारा कई यज़ीदी और अन्य समुदायों की महिलाओं को आई एस की क़ैद से छुड़ाया गया।
पी एम एफ़ ने मोसुल के आसपास के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, विशेष रूप से तल अफ़ार जैसे क्षेत्रों में, जहां यज़ीदी महिलाओं को क़ैद में रखा गया था। पी एम एफ़ ने तिकरित, फ़ालुजा, और रामादी जैसे शहरों में भी आई एस के विरुद्ध कई बड़े अभियान चलाए। इन अभियानों के दौरान भी बंधक बनाई गई महिलाओं को मुक्त कराया गया। हालांकि यज़ीदी समुदाय की अधिकांश महिलाएं सीरिया के रक्का जैसे क्षेत्रों में ले जाई गई थीं, जहां उनकी मुक्ति के लिए अलग-अलग प्रयास किए गए।
आई एस ने महिलाओं को गुलाम बाज़ारों में बेचा, और कई को सीरिया के रक्का और अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित कर दिया। जिहाद के फ़तवे में पॉपुलर मोबिलाइज़ेशन फोर्सेस (पी एम एफ़) को यह निर्देश भी दिया गया था कि वे समस्त अपह्रत महिलाओं को क्रूर आई एस के चंगुल से चाहे संघर्ष कर उन्हें मुक्त करायें या उन गुलाम बाज़ारों से ख़रीद कर उन्हें मुक्त कराकर उन्हें सुरक्षित व ससम्मान उनके घरों तक पहुंचाएं। और 'जिहादियों' द्वारा वैसा ही किया गया।
आज पूरे इराक़ में जहाँ आई एस के ज़ुल्म व बर्बरियत के निशान के रूप में जगह जगह खंडहर व विध्वंस दिखाई देता है वहीँ वातविक जिहाद के परिणाम की गवाही इराक़ में वापिस लौटी शांति और वहां के धर्मस्थलों पर सभी धर्मों व विश्वास के लोगों के 24 घंटों लगातार आने वाले लाखों लोगों के जन समुद्र से फैली रौनक़ दे रही है। मैंने स्वयं देखा है कि आज भी उस समय के अनेक शहीद जिहादी, लाशों की शिनाख़्त होने के बाद प्रतिदिन नजफ़ में हज़रत अली के रौज़े पर और करबला में हज़रत इमाम हुसैन के रौज़े पर ताबूत में रखकर लाये जाते हैं और इन रौज़ों की परिक्रमा के बाद और नजफ़ स्थित विश्व के सबसे बड़े क़ब्रिस्तान वादी अल-सलाम में दफ़्न किये जाते हैं।
पूरे इराक़ में राजमार्ग पर जिहाद के दौरान अपनी जान देने वाले शहीदों के हज़ारों चित्र खम्बों व फ़्लेक्स के रूप में लगे मिलेंगे। पूरा इराक़ उन शहीदों को इसतरह श्रद्धांजलि भेंट कर रहा है। यह भी पता चलता है इराक़ जैसे देश की तरक़्क़ी व वहां की धार्मिक व सामुदायिक एकता आख़िर पश्चिमी देशों की नज़रों में क्यों खटकती रहती है। कुछ ऐसा था नतीज-ए-जिहाद, जैसा मैंने इराक़ में देखा।

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