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कपड़ों से पहचान वाया शमशान-क़ब्रिस्तान और अब 'पंक्चर' तक पहुंचा राजनैतिक विमर्श

Identification through clothes reached crematorium-graveyard and now political discussion reached puncture - Ambala News in Hindi

भारतीय जनता पार्टी के बड़े से लेकर छोटे नेता तक जब कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सार्वजनिक रूप से नाम लेते हैं तो उनके नाम के साथ 'यशस्वी ' शब्द ज़रूर लगाते हैं। देश को इसके पहले लंबे समय तक शासन करने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू व इंदिरा गाँधी जैसे प्रधानमंत्री भी मिले। परन्तु उनके नाम के साथ 'यशस्वी ' शब्द कम से कम स्थाई रूप से इस तरह चिपका हुआ नहीं देखा गया। बजाय इसके वर्तमान 'यशस्वी' प्रधानमंत्री को कांग्रेस की सरकारों विशेषकर पंडित नेहरू की विभिन्न अवसरों पर आलोचना करते हुये ज़रूर देखा गया। निश्चित रूप से अपने समर्थकों की नज़रों में नरेंद्र मोदी यशस्वी प्रतापी, महान, हिन्दू ह्रदय सम्राट कुछ भी हो सकते हैं। परन्तु देश का निष्पक्ष नागरिक जब 'यशस्वी' प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना कांग्रेस के ही उन पूर्व प्रधान मंत्रियों से करता है जिसकी मोदी आलोचना करते हैं तो निश्चित रूप से वह पंडित नेहरू व इंदिरा गाँधी के सार्वजनिक भाषणों की भी तुलना 'यशस्वी' प्रधानमंत्री के भाषणों व उसके मुख्य मुख्य अंशों से ज़रूर करना चाहता है। और यह भी जानना चाहता है कि मात्र बहुसंख्य वोट हासिल करने के लिये क्या कभी इन पूर्व प्रधानमंत्रियों द्वारा भी ऐसी शब्दावलियों का प्रयोग किया गया जैसी कि हमारे 'यशस्वी' प्रधानमंत्री द्वारा बार बार की जाती है ? क्या इस तरह के भाषण और इस स्तर की भाषा ही हमारे प्रधानमंत्री को 'यशस्वी' प्रधानमंत्री बनाती है?
पिछले दिनों देश के यही 'यशस्वी' प्रधानमंत्री हरियाणा के हिसार पधारे। यहाँ एक जनसभा में वक़्फ़ कानून का ज़िक्र करते करते कुछ ऐसे शब्द उनके मुंह से निकले जिससे उनका 'यश' रातोंरात चौगुना हो गया। प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए यहाँ भी अपनी प्रिय 'पंच लाइन' तो दोहराई ही कि कांग्रेस पार्टी वक़्फ़ को लेकर तुष्टीकरण की राजनीति कर रही है। साथ ही उन्होंने यह भी कह डाला कि- "वक़्फ़ की संपत्ति का अगर ईमानदारी से उपयोग हुआ होता तो मुसलमान नौजवानों को साइकिल का पंक्चर बनाकर ज़िंदगी नहीं गुज़ारनी पड़ती। "इत्तेफ़ाक़ से जिस दिन प्रधानमंत्री अपने इस 'बेशक़ीमती वचनों' के द्वारा समुदाय विशेष के युवाओं को पंक्चर बनाने वाला युवा बता रहे थे उसी दिन संविधान निर्माता बाबासाहेब की जयंती भी थी।
इस 'बेशक़ीमती वाक्य के उनके मुंह से निकलते ही 'यशस्वी प्रधानमंत्री' को लोगों ने ख़ासकर विपक्ष ने आईना दिखाना शुरू कर दिया। जो प्रधानमंत्री देश के युवाओं को पकौड़ा बेचने की सलाह देते थे वही पंक्चर जैसे व्यवसाय का मज़ाक़ उड़ाते दिखाई दिये? यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि आज की मंहगाई के समय में पंक्चर बनाने का व्यवसाय शुरू करना भी आसान नहीं है। लाखों रूपये, उपयुक्त स्थान, बिजली, एयर कम्प्रेसर, भरपूर मेहनत और भी बहुत कुछ कुछ चाहिये पंक्चर का व्यवसाय शुरू करने के लिये। वैसे भी यह रोज़गार भीख मांगने या खंजरी बजाने से तो कहीं बेहतर और इज़्ज़त वाला कारोबार है साथ ही यह वाहन चालकों को बड़ी राहत पहुँचाने वाला व्यवसाय है।
याद कीजिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार ने कुछ वर्ष पूर्व इंदौर में एक कार्यक्रम में कहा था कि ‘भीख मांगना भी देश के 20 करोड़ लोगों का रोज़गार है, जिन्हें किसी ने रोज़गार नहीं दिया उन लोगों को धर्म में रोज़गार मिलता है, जिस परिवार में पांच पैसे की कमाई भी न हो उस परिवार का दिव्यांग और दूसरे सदस्य धार्मिक स्थलों में भीख मांगकर परिवार का गुज़ारा करता है, ये छोटा काम नहीं है।” ज़रा सोचिये जब संघ के वरिष्ठ नेता को भीख मांगना तक भी छोटा काम नहीं लगता तो संघ प्रशिक्षित 'यशस्वी' प्रधानमंत्री को पंक्चर बनाना जैसा अहम व्यवसाय तुच्छ व्यवसाय कैसे नज़र आ गया?
इसी तरह संघ प्रशिक्षित व उत्तर प्रदेश के एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के उप कुलपति राजाराम यादव ने भी अपने एक व्याख्यान में भीख मांगने को न केवल सही ठहराया था बल्कि इसे प्रोत्साहन भी दिया था। उन्होंने बताया था कि 'अपने छात्र जीवन में जब वे ट्रेन से स्कूल जाते थे उस समय एक अंधा भिखारी डफ़ली बजा कर एक दिन में एक से दूसरे स्टेशन के बीच में 2 दिन की ज़रूरत भर की कमाई कर लेता था। आज दुनिया में भारत में बेरोज़गारी का हव्वा खड़ा करके देश को बदनाम किया जा रहा है'। उसी समय उन्होंने छात्रों को सम्बोधित करते हुये यह तक कह दिया था कि 'अगर किसी के पास डफ़ली ख़रीदने के पैसे ना हों तो उनको विश्वविद्यालय डफ़ली ख़रीद कर दे देगा ।
वैसे तो प्रधानमंत्री भी अपने साक्षात्कार में अपने ही लिये 25-30 वर्षों तक भीख मांगने की बात कर चुके हैं। फिर आख़िर पंक्चर बनाने जैसा परिश्रम करने वाला स्वाभिमानी व्यवसाय तुच्छ या निकृष्ट अथवा हीन व्यवसाय कैसे और क्योंकर हो गया ? 'यशस्वी' प्रधानमंत्री मोदी की दूरदर्शिता सिर्फ़ 'पंक्चर ज्ञान ' तक ही सीमित नहीं है बल्कि कभी वे यह ज्ञान भी देते हैं कि 'उपद्रवियों की पहचान उनके कपड़ों से ही पता चल जाती है।' और कभी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की ख़ातिर उन्हें यह कहने में भी कोई हिचक नहीं होती कि -'अगर रमज़ान में बिजली आती है तो दीवाली में भी आनी चाहिए। अगर क़ब्रिस्तान के चारों तरफ़ दीवार बनती है तो श्मशान भी वैसा ही होना चाहिए।
'मुझे तो नहीं याद कि पंडित नेहरू व इंदिरा गाँधी जैसे प्रधानमंत्रियों ने भी कभी इस तरह की भाषा का प्रयोग किया हो जोकि आज के युग के 'यशस्वी' प्रधानमंत्री द्वारा की जा रही है। आख़िर विपक्षी नेताओं द्वारा क्यों आज प्रधानमंत्री को 'दो रूपये के ट्रोल्स की भाषा का प्रयोग करने वाला प्रधानमंत्री' कहा जाने लगा है ? ज़ाहिर है इसकी वजह यही है कि दुर्भाग्यवश अब राजनैतिक विमर्श का स्तर 'कपड़ों से पहचान' वाया शमशान-क़ब्रिस्तान होते हुये अब 'पंक्चर' तक पहुँच चुका है।

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