नई दिल्ली । 1900 के शुरुआती दशक में भारत के अंदर आजादी के लिए ज्वाला और तेजी से धधकी रही थी। कुछ समूहों ने ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए क्रांतिकारी हिंसा का सहारा लिया। उसी दौर में विदेशों में भी भारत की आजादी के दीवाने उठ खड़े हुए थे। 'गदर आंदोलन' जैसे मोर्चे विदेश की धरती पर निकाले जा रहे थे।
ठीक उसी दौर में 'सत्याग्रह' के जरिए महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में भारतीय प्रवासियों के साथ अन्याय और भेदभाव के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे थे। इसी कड़ी में 6 नवंबर 1913 वह दिन था, जब महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में दमनकारी कानून के खिलाफ 'ग्रेट मार्च' शुरू किया।
महात्मा गांधी मई 1893 में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे थे। 23 वर्षीय बैरिस्टर के रूप में उन्होंने नटाल में एक भारतीय व्यापारी के वकील की सहायता के लिए एक मामूली वेतन पर कार्यभार स्वीकार किया था, इस उम्मीद में कि उन्हें नई भूमि में बेहतर संभावनाएं मिलेंगी। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
7 जून 1893 की वह सर्द रात भारत के इतिहास में भी दर्ज की गई, जब महात्मा गांधी को रंगभेद के कारण दक्षिण अफ्रीका के पीटरमैरिट्जबर्ग रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से धक्का देकर उतार दिया गया। महात्मा गांधी फर्स्ट क्लास का वैध टिकट लिए हुए यात्रा कर रहे थे, लेकिन सिर्फ इसलिए कि वे 'काले' थे, एक गोरे यात्री ने आपत्ति जताई और अधिकारियों ने उन्हें जबरन डिब्बे से उतार दिया।
उस अपमानजनक अनुभव ने महात्मा गांधी के भीतर एक तूफान खड़ा कर दिया। वे चाहकर भी उस रात कुछ नहीं कर सके, पर उसी रात उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि अन्याय के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष की एक नई राह बनाई जाएगी। दक्षिण अफ्रीका में उनके संघर्ष की शुरुआत यहीं से हुई।
उन्होंने 'सत्याग्रह' की नींव रखी और अन्याय के विरुद्ध अहिंसा और सत्य के बल पर डटकर खड़े होने का रास्ता चुना। महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में लगभग दो दशक तक भारतीय समुदाय के अधिकारों की लड़ाई लड़ी।
उस समय, नटाल में 50 हजार से कुछ ज्यादा भारतीय थे। इनमें से एक-तिहाई बागानों, खदानों और रेलवे में काम करने वाले 'बंधुआ मजदूर' थे, जिन्हें पांच साल के अनुबंध पर लाया गया था और अनुबंध की समाप्ति पर जमीन और अधिकार देने का वादा किया गया था। लगभग 30 हजार 'स्वतंत्र भारतीय' थे, जिन्होंने अनुबंध पूरा कर लिया था और उनके बच्चे थे। 5,000 लोग व्यापारी समुदाय से थे।
नटाल के विकास में भारतीयों का बहुत बड़ा योगदान था, लेकिन महात्मा गांधी के आगमन के आसपास श्वेत अधिकारियों ने भारतीयों के बुनियादी अधिकारों को छीनने के लिए कदम उठाने शुरू कर दिए। उन्हें लगा कि 'स्वतंत्र भारतीयों' का अस्तित्व श्वेतों के प्रभुत्व को कमजोर कर देगा। उन्होंने कुछ योग्य भारतीयों के मताधिकार छीन लिए।
उन्होंने भारतीयों को व्यापार लाइसेंस देने से इनकार करना शुरू कर दिया। उन्होंने सभी 'स्वतंत्र भारतीयों' पर तीन पाउंड का कर लगा दिया ताकि उन्हें या तो फिर से बंधुआ बनने या भारत लौटने के लिए मजबूर किया जा सके। ट्रांसवाल में 12 हजार भारतीयों की स्थिति और भी खराब थी।
महात्मा गांधी ने अधिकारियों के सामने अपनी बात रखने के लिए नटाल इंडियन कांग्रेस और ट्रांसवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की स्थापना में मदद की।
उन्होंने युवाओं को सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया और मजदूरों को मुफ्त कानूनी सेवाएं प्रदान कीं। उस समय तक दक्षिण अफ्रीका भी आजाद मुल्क नहीं बना था, लेकिन वहां भी भारतीयों पर जुल्म बरकरार थे।
जून 1906 में एशिएटिक कानून संशोधन अध्यादेश लाया गया था, जिसका प्रभाव भारतीयों पर भी था। ट्रांसवाल के अधिकारियों ने अध्यादेश जारी किया, जिसमें सभी भारतीयों को उंगलियों के निशान के साथ पंजीकरण कराना और पुलिस की ओर से मांगे जाने पर पंजीकरण प्रमाणपत्र दिखाना अनिवार्य कर दिया गया। गांधीजी ने इस अध्यादेश को भारतीय समुदाय के प्रति घृणा से भरा और भारत के सम्मान का अपमान माना।
11 सितंबर 1906 को एक विशाल जनसभा बुलाई गई, जिसमें तीन हजार भारतीय शामिल हुए थे। इस जनसभा में महात्मा गांधी ने चेतावनी दी कि अगर वे कानून का उल्लंघन करते हैं तो उन्हें सबसे बुरे परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। भारतीयों ने इस कानून को इतना अपमानजनक माना कि उन्होंने झुकने के बजाय कष्ट सहना ही बेहतर समझा।
इंडियन ओपिनियन के माध्यम से उन्होंने आंदोलन को पहचान देने के लिए एक शब्द के सुझाव मांगे और नवंबर 1907 में 'सत्याग्रह' शब्द चुना, जिसका अर्थ है किसी सही उद्देश्य के लिए दृढ़ विरोध। यह महात्मा गांधी के जीवन में एक नए चरण का समय था, हालांकि ट्रांसवाल में दो हजार से अधिक लोगों ने 'काले कानून' का उल्लंघन किया और जेल गए, उनमें से कुछ को बार-बार जेल जाना पड़ा, उन्हें कठोर सजा दी गई।
फिर वह समय आया, जब 1910 में दक्षिण अफ्रीका संघ का गठन हुआ, हालांकि अगले तीन साल तक भारतीयों के लिए स्थितियों में कोई खास अंतर नहीं आया। चुनौतियां और बढ़ चुकी थीं, जिनसे लड़ना उस समय उन बंधुआ मजदूरों के लिए आसान नहीं था।
इसी बीच सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने चिंगारी भड़काने का काम किया। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि ईसाई रीति-रिवाजों के अनुसार नहीं किए गए सभी विवाह (यानी अधिकांश भारतीय विवाह) अमान्य हैं। इससे भारतीयों के विवाह भी अवैध करार दिए गए और विरासत में बच्चों का हक भी खतरे में आ गया, क्योंकि उन्हें उत्तराधिकार से वंचित कर दिया गया।
इस बीच नटाल के अधिकारियों ने उन भारतीयों पर आपराधिक मुकदमे चलाने शुरू कर दिए जो तीन पाउंड प्रति व्यक्ति का अत्यधिक वार्षिक कर नहीं चुका सकते थे।
सितंबर 1913 में नेटाल और ट्रांसवाल दोनों जगहों पर सत्याग्रह फिर से शुरू हुआ। इस बार महिलाओं को भी इसमें शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया। कई महिलाओं ने, जिनमें से कुछ के साथ उनके बच्चे भी थे, कारावास की सजा का सामना किया। इसमें महात्मा गांधी की भागीदारी भी रही। 6 नवंबर 1913 को उन्होंने 'मार्च' निकाला, जिसे 'ग्रेट मार्च' के रूप में पहचान मिली।
प्रतिरोध करने वालों में सभी धर्मों के अमीर-गरीब और कई भाषाएं बोलने वाले पुरुष और महिलाएं शामिल थीं। दमन की बढ़ती कठोरता से कोई भी विचलित नहीं हुआ। हेनरी पोलाक और हरमन कैलेनबाख जैसे कुछ यूरोपीय लोगों ने खुद को भारतीय आंदोलन से जोड़ा और जेल गए। महिला सत्याग्रहियों के आह्वान पर खदानों में काम करने वाले भारतीय मजदूर हड़ताल पर चले गए।
सरकार ने सेना बुलाई और क्रूरता से जवाब दिया। खदान परिसरों को जेलों में बदल दिया गया। दस हजार मजदूरों को जेल में डाल दिया गया, हालांकि महात्मा गांधी ने अपने आदर्श से समाज को प्रेरित किया। उन्होंने मजदूरों के बारे में कहा, "ये पुरुष और महिलाएं भारत के नमक हैं, इन्हीं पर भावी भारतीय राष्ट्र का निर्माण होगा।"
भारत में राष्ट्रीय आंदोलन और ब्रिटेन के दबाव से समर्थित भारतीय समुदाय के दृढ़ संकल्प के सामने सरकार को गांधी के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसमें सत्याग्रह की सभी मुख्य मांगें मान ली गईं।
इसके बाद गांधीजी 18 जुलाई 1914 को भारत के लिए रवाना हुए, जहां उन्हें स्वतंत्रता के लिए एक महाकाव्य संघर्ष में लाखों लोगों का नेतृत्व करना था।
--आईएएनएस
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