नई दिल्ली । सोसाईटी ऑफ लॉ फर्मस (एसआईएलएफ) ने न्यायपालिका पर बढ़ते हमले और न्यायिक अखंडता को कमजोर करने के प्रयासों के खिलाफ आवाज उठाई है और इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।
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एसआईएलएफ के अनुसार पिछले दिनों यह देखने को मिला है कि कई बार सर्वोच्च अदालत (सुप्रीम कोर्ट) के न्यायाधीशों की ईमानदारी और क्षमता पर सवाल खड़े किए गए, यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे में यह हमारे देश की न्यायपालिका की छवि को धूमिल करने का एक खतरनाक और कुत्सित प्रयास है। जबकि, देश की अदालतें हमेशा कानून के शासन को लेकर अड़ी और खड़ी रही हैं।
सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से बार-बार इस बात को कहा गया है कि कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो, कानून से ऊपर नहीं है। न्यायपालिका पार्टियों की स्थिति और कद की परवाह किए बिना कानूनों को लागू करने और व्याख्या करने के लिए प्रतिबद्ध है। इसके साथ ही अदालतों के पास यह भी आजादी है कि किसी उच्च प्रोफाइल वाले व्यक्ति के खिलाफ भी वह कानून लागू कराए। ऐसे में किसी भी संस्था के जांच कार्यों में हस्तक्षेप की अनुमति अदालतों द्वारा नहीं दी गई है।
ऐसे में यह सुनिश्चित करने का कार्य न्यायपालिका का है कि नागरिकों के अधिकार समाज और राज्य के अधिकारों के अनुरूप हैं या नहीं। जहां तक न्यायपालिका की कार्यप्रणाली का सवाल है, कोई स्वर्णिम काल या डार्क पीरियड नहीं होता है। न्यायपालिका को हर समय संविधान की मूल भावना, संवैधानिक मानदंडों और नैतिक प्रथाओं का पालन करना होता है। ऐसे में जब सर्वोच्च न्यायालय का इतिहास लिखा जाएगा तो इस बात पर प्रकाश डाला जाएगा कि न्यायालय ने हमेशा कानून के शासन के संरक्षक के रूप में कार्य किया है।
हालांकि, वर्तमान में न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने और इसके संचालन में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति बढ़ी है, जिससे हमारे कुछ महत्वपूर्ण न्यायिक कार्यों पर असर पड़ने का खतरा है।
भारत में न्यायपालिका ने हर समय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को सुरक्षित करने के लिए लगातार प्रयास किया है और इसे मजबूत किया है। हमारी न्यायपालिका में किसी भी दबाव को झेलने या न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप की अनुमति देने की अंतर्निहित शक्ति है। ऐसे में कुछ वरिष्ठ वकीलों द्वारा न्यायाधीशों की बुद्धिमत्ता, निष्ठा और क्षमता पर सवाल उठाने की कोशिश परेशान करने वाली है और इसी को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए यह मुद्दा उठाया गया है क्योंकि इन चिंताओं पर ध्यान देने की जरूरत है।
जबकि, एक न्यायाधीश का शपथ एक संपूर्ण आचार संहिता है और इसमें न्यायिक नैतिकता के सभी सिद्धांत शामिल हैं। इसके साथ ही हमारी न्यायपालिका न्यायिक स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक संस्थाओं एवं कानून के शासन को संरक्षित और मजबूत करने की प्रतिबद्धता का एक बेहतरीन उदाहरण है।
ऐसे में हिंदू दर्शन खूबसूरती से एक न्यायाधीश की तुलना एक ऐसे फूल से करता है जो कभी नहीं मुरझाता और हमेशा ताजा रहता है। इसे एक कहानी के माध्यम से समझना उचित होगा।
आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच एक धार्मिक चर्चा होनी थी। मंडन मिश्र की पत्नी भारती इसकी न्यायाधीश थीं। दोनों को बैठने के लिए एक जैसे आसन दिए गए। ताजे फूल तोड़ कर भारती ने एक जैसी दो मालाएं पिरोईं। उन्होंने उसे दोनों विद्वानों के गले में डाल दिया और कहा कि चर्चा के दौरान, माला विजेता और हारे हुए का फैसला करेगी। जिस माला के फूल पहले मुरझा जाएंगे, उसे पहनने वाला हारा हुआ माना जाएगा।
भारती ने कहा कि जिसके पास बौद्धिक स्पष्टता, सोचने की शक्ति और आत्मविश्वास होगा, उसकी आवाज शांत बसंत की तरह होगी, जिसके पास फूल लंबे समय तक ताजा रहेंगे, जिसकी बुद्धि या तर्कशक्ति तीव्र होगी। जिसका आत्मविश्वास डगमगा जाएगा, उसकी आवाज कठोर हो जाएगी, उसकी नसों में रक्त का संचार तेज हो जाएगा और उसकी सांसें गर्म हो जाएंगी। ऐसे ही हमारी न्यायपालिका की माला के फूल हमेशा ताजा रहेंगे।
सोसाइटी ऑफ इंडियन लॉ फर्म देश भर में 125 लॉ फर्मों के साथ न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है और एक संस्था के रूप में न्यायपालिका के खिलाफ आक्षेप लगाकर उसकी कार्यप्रणाली को बदनाम करने के प्रयास की कड़ी निंदा करती है। हमारी सोसायटी का मानना है कि कानून को अपना सामान्य कामकाज करने की अनुमति होनी चाहिए, चाहे उन व्यक्तियों की स्थिति कुछ भी हो जिनके संबंध में जांच चल रही है। व्यक्तियों की बेगुनाही या अन्य किसी भी बात पर निर्णय करना अदालतों पर छोड़ दिया जाना चाहिए।
--आईएएनएस
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