वर्तमान में उत्तर प्रदेश राज्य पुलिस भर्ती बोर्ड के सदस्य व
पूर्व आईपीएस चतुर्वेदी और तिहाड़ जेल के पूर्व कानूनी सलाहकार (हाल ही में
तिहाड़ जेल की नौकरी के अपने निजी अनुभवों पर आधारित किताब 'ब्लैक-वारंट'
के लेखक) सुनील गुप्ता के भारत की जेलों में फांसी को लेकर कमोबेश अधिकांश
विचार समान ही हैं।
आईपीएस चतुर्वेदी जेल की नौकरी के दौरान भारतीय
सेना के भगोड़े जवान से बाद में भगोड़ा डाकू बने 35 साल के बैंक डकैत और
हत्यारे विक्रम सिंह और पांच लोगों की हत्या के जिम्मेदार 45 साल के एक
शिक्षक से मुजरिम करार दिए गए, कैदी को फांसी दिए जाने के गवाह बने थे। उन
दोनों को इलाहाबाद नैनी जेल में फांसी पर चतुर्वेदी की मौजूदगी में ही
लटकाया गया था, जबकि सुनील गुप्ता ने तिहाड़ जेल की नौकरी में सतवंत-केहर
सिंह (प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारे), संसद हमले के आरोपी अफजल
गुरु, कश्मीरी आतंकवादी मकबूल बट्ट इत्यादि को खुद की मौजूदगी में फांसी पर
लटकवाया था।
इन दोनों ही अधिकारियों ने जब हिंदुस्तान में फांसी के
इतिहास पर नजर डाली, तो ये दोनों पूर्व जेल अधिकारी बीते करीब सात दशक
पीछे तक जा पहुंचे। आईएएनएस से बात करते हुए चतुर्वेदी और गुप्ता ने कहा,
"अब से करीब 89 साल पहले जब देश अंग्रेजों की बेड़ियों से आजाद होने के लिए
जूझ रहा था, तब ऐसा कभी कुछ हुआ हो, तो वह शायद किसी को याद भी नहीं
होगा।"
गुप्ता और चतुर्वेदी के मुताबिक, "अब 7 जनवरी 2020 को जिन
चारों मुजरिमों को एक साथ फांसी के फंदे पर अदालत ने लटकाने का हुक्म दिया
है, वे क्रूर हत्यारे बलात्कारी हैं। उनकी यही सजा जायज है। हां, यह भी
अपने आप में आजाद हिंदुस्तान में दी गई अब तक की फांसी के इतिहास में, एक
ऐसा पन्ना जुड़ा है, जिसके ऊपर किन्हीं चार मुजरिमों को एक साथ फांसी के
फंदे पर लटकाए जाने की रूह कंपा देने वाली डरावनी कहानी लिखी जा रही है।"
--आईएएनएस
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