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श्रमिक दिवस पर विशेष : ई-युग में श्रमिकों की जरूरत

सबसे बड़ी बात यह कि श्रमिकों के हितों के लिए ईमानदारी से लडऩे वाला कोई नहीं है। पूर्व में जिन लोगों ने मजदूरों के नाम पर प्रतिनिधित्व करने का दम भरा जब उनका उल्लू सीधा हो गया। वह भी सियासत का हिस्सा हो गए। उन्होंने भी मजदूरों के सपनों को बीच राह में भटकने के लिए छोड़ दिया। लेकिन केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार श्रमिकों के लिए संजीदा से काम करती दिख रही है। मजदूरों के उद्धार के लिए बनाए गए लक्ष्य को हासिल करने में किसी तरह की कोताही नहीं होने देंगे की बात कही जा रही है।

श्रमिकों की बदहाली से भारत ही आहत नहीं है, बल्कि दूसरे मुल्कों भी पेरशान हैं। भूख से होने वाली मौतों की समस्या पूरे संसार के लिए बदनामी जैसी है। झारखंड में एक बच्ची बिना भोजन के दम तोड़ देती है।

सवाल उठता है कि जब जनमानस को हम भर पेट खाना तक मुहैया नहीं करा सकते, तो किस बात की हम तरक्की कर रहे हैं। भारत में ही नहीं, दुनिया के कई देशों में यह समस्या काफी विकराल रूप में देखी जा रही है।

आकंड़ों के मुताबिक, सिर्फ हिंदुस्तान में रोज 38 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं। ओडि़शा एवं पश्चिम बंगाल में तो भूख के मारे किसान एवं मजदूर दम तोड़ रहे हैं। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। तमाम तरह के प्रयासों के बावजूद आजतक इस दिशा में कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ सका है। इसके अलावा बिहार, झारखंड, तमिलनाडु एवं अन्य छोटे प्रांतों के कुछ छोटे-बड़े क्षेत्र इस समस्या से प्रभावित होते रहे हैं।

यह वह इलाका है, जहां समाज के पिछड़ेपन के शिकार लोगों का भूख से मौत का मुख्य कारण गरीबी है। इसके विपरीत देश के कई प्रांतों में लोग भूख के बजाय कर्ज और उसकी अदायगी के भय से आत्महत्या कर रहे हैं। यहां गौर करने वाली बात यह है कि गरीबी के कारण भूख से मरने वाले आमतौर पर गरीब किसान और आदिवासी हैं।

श्रमिकों की दशा सुधरे, इसके लिए हमारे पास संसाधनों की कमी नहीं है, मगर इसका कुप्रंधन ही समस्या का बुनियादी कारण है। इसी कुप्रंधन का नतीजा है कि ग्रामीण श्रमिक लगातार शहरों की ओर भागने को विवश हो रही है। गांवों से शहरों की ओर पलायन कर रही आबादी पर अगर नजर डालें तो यह स्पष्ट होता है कि इनमें गरीब नौजवानों से लेकर संपन्न किसान और पढ़े-लिखे प्रोफेशनल्स तक शामिल हैं।

कतार में खड़े अंतिम आदमी की बात तो हर नेता करता है, लेकिन उसकी बात केवल भाषण तक ही सीमित रह जाती है। उस अंतिम आदमी तक संसाधन पहुंचाने के दावे तो खूब किए जाते हैं, लेकिन पहुंचाने की ताकत किसी में नहीं है। शायद यही कारण है कि गांवों में स्कूल तो हैं लेकिन तालीम नदारद है, अस्पताल तो हैं लेकिन डॉक्टर व दवाइयां नहीं हैं। दूरवर्ती गांवों तक पहुंचने को सडक़ें हैं, लेकिन वाहन नहीं। प्रशासन है लेकिन अराजक तत्वों का उस पर इतना दबदबा है कि प्रशासन उनके आगे लुंजपुंज हो जाता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)
--आईएएनएस

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Web Title-Labor Day Special : Need for workers in E-Yuga
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