1991 का वह दौर जब पूरी दुनिया आर्थिक उथल-पुथल से गुजर रही थी, भारत भी गंभीर संकट के भंवर में फंसा हुआ था। विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म हो चुके थे, देश कर्ज के बोझ तले दबा हुआ था, और आर्थिक व्यवस्था चरमरा रही थी। ऐसे कठिन समय में देश को संभालने का जिम्मा डॉ. मनमोहन सिंह के कंधों पर आया।
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डॉ. सिंह, जो उस समय भारत के वित्त मंत्री थे, ने अपने गहरे आर्थिक ज्ञान और शांत नेतृत्व से एक क्रांतिकारी सुधार योजना पेश की। उन्होंने उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण के सिद्धांतों पर आधारित नई आर्थिक नीतियां लागू कीं। विदेशी निवेश को प्रोत्साहन, लाइसेंस राज की समाप्ति, और विदेशी मुद्रा भंडार को पुनः संचित करने की पहल ने भारतीय अर्थव्यवस्था को स्थिरता प्रदान की।
उनकी नीतियों का असर सिर्फ संकट के तत्काल समाधान तक सीमित नहीं रहा। इन सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को लंबे समय तक टिकाऊ और प्रतिस्पर्धात्मक बनाया। आईटी और सेवा क्षेत्र में भारत की बढ़त, मिडल क्लास का उभरना, और वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान का मजबूत होना इन्हीं नीतियों की देन हैं।
इस संकट का सामना करने के दौरान उन्हें आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा। लेकिन डॉ. सिंह ने अपनी सादगी और धैर्य के साथ न केवल समस्याओं का हल निकाला, बल्कि यह साबित किया कि एक सच्चा नेता वही है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी देश को संभाल सके।
डॉ. मनमोहन सिंह का वह दौर हमें सिखाता है कि नेतृत्व सिर्फ वक्त की जरूरत को समझने और सही फैसले लेने का नाम है। उनके योगदान को इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाएगा।
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