नई दिल्ली। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि 2002 में गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के दौरान बिलकिस बानो के खिलाफ किया गया अपराध धर्म के आधार पर किया गया 'मानवता के खिलाफ अपराध' था।
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न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ जनहित याचिका में दिए गए तर्कों पर विचार कर रही थी। याचिकाकर्ताओं ने बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार और उसकी तीन साल की बेटी सहित उसके परिवार के सदस्यों की हत्या के मामले में गुजरात सरकार द्वारा 11 दोषियों को दी गई छूट के खिलाफ शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था।
दोषियों की रिहाई के खिलाफ दायर याचिकाओं पर अंतिम सुनवाई लगातार चौथे दिन जारी रही, जिसमें बिलकिस बानो द्वारा दायर याचिका भी शामिल है।
जनहित याचिका याचिकाकर्ताओं में से एक, तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा की ओर से पेश इंदिरा जयसिंह ने तर्क दिया कि राज्य सरकार ने महिलाओं और बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने के बजाय उन दोषियों की सजा माफ कर दी है जो हत्याओं और बलात्कारियों के गिरोह में शामिल थे।
उन्होंने तर्क दिया कि 2002 के गुजरात दंगों का संदर्भ दोषी को सजा में छूट देने के खिलाफ एक प्रासंगिक कारक है, क्योंकि बिलकिस बानो पर किए गए जुल्म को अलग करके नहीं देखा जा सकता।
उन्होंने पीठ को बताया, ''जब बिलकिस के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, तब वह पांच महीने की गर्भवती थी।'' उन्होंने कहा कि यह एक ''क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक'' कृत्य था।
इंदिरा जयसिंह ने तर्क दिया कि गुजरात सरकार द्वारा निर्धारित छूट नीति "कोई नीति नहीं" है, क्योंकि यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांतों की अनदेखी करती है। साथ ही, नीति छूट देने के लिए गंभीरता के आधार पर अपराध को वर्गीकृत करने में भी विफल रही।
वकील वृंदा ग्रोवर ने आगे कहा कि अपराध मानवता के खिलाफ किए गए थे और हमले केवल एक व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि समाज के खिलाफ किए गए थे। ग्रोवर ने कहा कि जनहित याचिकाएं (पीआईएल) राज्य सरकार द्वारा छूट देने के कार्यकारी विवेक और शक्ति को चुनौती देती हैं।
उन्होंने कहा, आपराधिक न्याय प्रक्रिया समाप्त हो गई है और अंतिम रूप ले चुकी है। उन्होंने बताया कि दोषियों ने उन पर लगाए गए जुर्माने का भुगतान नहीं किया और जुर्माना न चुकाने से सजा में छूट स्वयं ही अवैध हो जाती है।
इससे पहले, एक दोषी की ओर से पेश वकील ऋषि मल्होत्रा ने जनहित याचिकाओं की स्थिरता का विरोध करते हुए कहा था कि जनहित याचिका वादियों ने मीडिया रिपोर्टों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और उनकी याचिकाओं पर विचार करने से भानुमती का पिटारा खुल जाएगा।
केंद्र, गुजरात सरकार और दोषियों ने सीपीआई-एम नेता सुभाषिनी अली, तृणमूल की मोइत्रा, नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमेन की आसमां शफीक शेख और अन्य द्वारा दायर जनहित याचिकाओं (पीआईएल) का विरोध करते हुए कहा है कि एक बार पीड़िता ने खुद अदालत का दरवाजा खटखटाया था। , दूसरों को किसी आपराधिक मामले में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एस.वी. राजू ने तर्क दिया था कि सजा में कमी और सजा में छूट के सवाल पर दायर जनहित याचिका पर विचार नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा, "जहां तक सजा की मात्रा का सवाल है, कोई तीसरा पक्ष कभी भी इसमें दखल नहीं दे सकता।"
अदालत ने केंद्र, राज्य सरकार और दोषियों के वकीलों को अपनी दलीलें आगे बढ़ाने की अनुमति देने के लिए मामले की सुनवाई 17 अगस्त को तय की।
गर्भवती महिला के साथ जुलम के दोषी 11 लोगों को पिछले साल 15 अगस्त को रिहा कर दिया गया था। इन्हें ठीक उसी दिन रिहा किया गया, जिस दिन प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से महिलाओं के सम्मान की बात कही थी। गुजरात सरकार ने अपनी छूट नीति के तहत दोषियों की रिहाई की अनुमति दी थी और कारण बताया था कि दोषियों ने जेल में 15 साल पूरे कर लिए हैं।(आईएएनएस)
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