सामूहिक भीड़ का कोई मस्तिष्क नहीं होता। उसके द्वारा उन्माद में लिए गए सड़क पर त्वरित फैसले सामाजिक संरचना के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर उभरते हैं और राजकीय संपत्ति के लिए कई बार भारी नुकसान दायक भी होते हैं। भीड तंत्र द्वारा किया गया न्याय राज्य की विफलता है। जो कार्य राज्य की कार्यपालिका तथा न्यायपालिका द्वारा गुण दोष के आधार पर किया जाना चाहिए, आज उसे भीड़ तंत्र द्वारा किया जा रहा है। यह सार्वभौमिक अवधारणा है कि भीड़ को राजनीति और सत्ता मिलकर पैदा करते हैं, और यही सामूहिक लोगों की भीड़ राज्य के नियंत्रण से मुक्त होकर राज्य के अस्तित्व को चुनौती देने लगती है। और फिर सामने आती है मॉब लीचिंग।
वर्तमान समाज उपभोक्तावादी हो गया है, आजकल सहयोग तथा सहिष्णुता की भावना तथा समझ लगातार कम होते जा रही है। हम की संयुक्त भावनाओं के बजाए मैं की प्रवृत्ति सामने आने लगी है। और समाज व्यक्ति केंद्रित विकास की ओर अग्रसर हो कर समाज का एक बड़ा तबका विकास के पथ से बहुत पीछे छूट गया है। वस्तुतः एक तरफा वैश्वीकरण तथा साधनों के केंद्रीकरण के कारण गरीबी तथा बेरोजगारी खुलकर सामने आने लगी है।
भारत के 10% लोगों के पास देश की 58% संपत्ति का स्वामित्व है। एवं देश की पूंजी का 70% भाग 1 प्रतिशत लोगों के अधिकार क्षेत्र में है। यही कारण है कि भारत में भी फ्रांस एवं रूस की क्रांति जैसी स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। इस मामले में भारत में हर राज्य की भूमिका अलग-अलग तथा भिन्न-भिन्न है। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
भारत की शिक्षा व्यवस्था भी भीड़तंत्र को काफी प्रोत्साहित कर रही। बैचलर डिग्री तथा मास्टर डिग्री लेने के बाद डिग्रीधारी लोग बेरोजगारी या अल्प रोजगार के कारण कुंठित हो रहे हैं।
यही कुंठा बेरोजगारी एवं गरीबी किसी भी घटना को भीड़ तंत्र की ओर खींचती है, फलस्वरूप मॉब लिंचिंग की अनेक घटनाएं सामने आने लगी हैं। दूसरी तरफ कानून का यह मानना है कि न्याय में विलंब न्याय को नकारना है। भारत की न्याय व्यवस्था अपने लंबित मुकदमों तथा प्रकरण के कारण एक तरह से अन्याय को ही जन्म देती है। किसी हत्यारे या बलात्कारी को सजा देने का समय तब आता है, जब आरोपी बहुत बुजुर्ग अथवा मर चुका होता है।
भीड़ तंत्र अस्थाई रूप से समान मूल्यों तथा भावनाओं की पहचान के साथ जुड़े अलग-अलग समूहों के लोगों का शामिल एक बड़ा समूह है। भीड़ की कोई अपनी आंख शक्ल नहीं होती एवं भीड़ की कोई पहचान भी नहीं होती है। इसके उद्देश्य तत्कालिक होते हैं, यह भी हो सकता है कि भीड़ में जो एक क्षण पहले नायक हुआ करता था, वह अगले ही पल उस समूह का पीड़ित व्यक्ति भी हो सकता है। इतिहास में इसके कई उदाहरण है जहां भीड़ ने अपने नेता को पद से हटाकर उसकी विनाश लीला ही रचा दी थी। फ्रांस का शासक रोबेस्पीयर इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है।
सिगमंड फ्रायड के अनुसार भीड़ में व्यक्ति अपने सारे मूल्य खोकर आदिम काल में पहुंच जाता है, और भीड़ में कोई धर्म नहीं रह जाता है। कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की लेटलतीफी के कारण भीड़ को कानून का भय लगभग समाप्त हो गया है। धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन कर किसी विशेष धर्म के लोगों को खानपान तथा व्यंजन के आधार पर कथित लोगों द्वारा किसी को भी निशाना बना कर उसकी हत्या कर दी जाती है, यह देश के लिए अत्यंत दुर्भाग्यजनक है। रही सही कसर सोशल मीडिया पूरा कर रहा है, फर्जी समाचार तथा राजनीतिक नियंत्रण के कारण सोशल मीडिया कई बार किसी विशेष वर्ग के द्वारा राजनीतिक संरक्षण में संचालित किया जा रहा है।
लोकतंत्र का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा चौथा स्तंभ मीडिया भी जन जागरूकता के प्रचार प्रसार के बजाय घटनाओं को धर्म तथा वर्ग के आधार पर विशेष वर्ग के हितों को प्रचारित प्रसारित करता है, जो इस आदिम कॉल की व्यवस्था को पुष्पित पल्लवित करता है। भावनात्मक बुद्धिमत्ता का प्रयोग सामाजिक विकास न्याय के स्थान पर अन्याय प्रकृति की तरफ बढ़ता नजर आ रहा है।
मॉब लिंचिंग के कारण समाज में आम हिंसा की घटनाएं बढ़ने लगी है, इससे समाज की संस्कृति को दीर्घकालिक क्षति होगी।
इस तरह भीड़ तंत्र के द्वारा की गई हिंसक घटनाओं तथा हत्या से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की साख की गिरावट भी होती है एवं आर्थिक क्षेत्र में निवेश पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसी तरह हिंसक घटनाओं से पलायन तथा संसाधनों के विकास पर बाधा पड़ने से सामाजिक तथा आर्थिक क्षमता को बढ़ावा मिलता है।
भारत में स्वतंत्रता संग्राम भी सामूहिक भीड़ के माध्यम से ही जीता था, फ्रांस तथा रूस में भी भीड़ द्वारा सकारात्मक भूमिका निभाकर अनैतिक तथा अवैधानिक शासन तंत्र को खत्म किया था। भीड़ तंत्र द्वारा ही करप्शन अगेंस्ट इंडिया चलाकर का भी कुछ सफलता प्राप्त की थी।
इस भीड़ तंत्र के न्याय की नकारात्मक भूमिका आज की स्थिति में ज्यादा है। अतः हमें इसे प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। भीड़ तंत्र तथा मॉब लिंचिंग को एक घनघोर सामाजिक बुराई समझकर सामाजिक संगठनों नागरिकों एवं शासन तंत्र द्वारा एक अभियान चलाकर ऐसे लोगों को हतोत्साहित कर कठोर कानून बनाकर इसे नियंत्रित किया जाना चाहिए। तब जाकर भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा प्रजातंत्र की आस्था जीवित रहेगी।
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