शहरों में कॉलोनियों के
रूप में उगे कंक्रीट
के जंगलों के बीच पेड़ों
की नगण्य संख्या का असर है
या घरों की बनावट
में आए बदलाव से
मुंडेर जैसी जगह का
लोप होने का असर, श्राद्ध पक्ष में घरों की छतों पर कौवों
का आना अब गुजरे जमाने की बात हो चुकी
है। पितरों के लिए तैयार
किया गया भोजन अब
घर की मुंडेर पर
कौवों को परोसने के बजाय उसे लेकर किसी पार्क
या किसी बाग में
जाना पड़ता है।
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श्राद्ध पक्ष में लोग
अपने दिवंगत पूर्वजों को याद करते
हुए उन्हें भोजन कराते हैं।
इसके लिए कौओं को
श्राद्ध के दिन तैयार
किए गए पकवानों से
भरी थाली घर की
छत पर जाकर मुंडेर
पर रखने की परम्परा
है। तीन-चार दशक
पीछे लौटें तो पकवानों से
भरी थाली लेकर छत
पर चढ़ते ही कौवों का
झुंड मंडराने लगता था। पकवान
परोसने के बाद कुछ
ही देर में सब
कुछ साफ हो जाता।
कौवों के भोजन ग्रहण
करने के बाद ही
घर के सदस्य भोजन
करते। कौवों को भोजन के
लिए आमंत्रित करने के लिए
छतों पर चढ़ कर
लगाई जाने वाली आवाजें
भी अब सुनाई देना
बंद हो गई है।
बुर्जुग लोगों का कहना है
कि शहरी क्षेत्र
में पेड़ों की कटाई होने
के कारण कौवे घरों
से दूर चले गए
हैं। इसके अलावा खुले
मकानों के बजाय कवर्ड
मकान बनाने का चलन शुरू
होने से भी कौवे
घरों से दूर हो
गए। घर का आंगन
खुला होता था तो
कौवे रोटी के टुकड़े
या अन्य खाद्य सामग्री
को देख बेखौफ आंगन
में आ जाते थे
और उसे चोंच में
उठा कर उड़ जाते
थे। घर की मुंडेर और
कौवे का तो चोली-दामन जैसा साथ
था। मुंडेर पर आकर कौवा
कांव-कांव करता तो
यही कहा जाता था
कि आज कोई मेहमान आएगा।
बदले
जमाने में पति-पत्नी
दोनों ही कामकाजी हो
गए हैं तो श्राद्ध
की रेडीमेड थाली की होम
डिलीवरी भी शुरू हो
गई है। जो परिवार
संयुक्त हैं, वहां तो
घर पर ही पक्की
रसोई बनाई जाती है।
जयपुर के सर्वाधिक पॉश इलाके में
टिफिन सेंटर का संचालन करने वाले एक सज्जन का कहना
है कि सुबह उठते
ही दफ्तर जाने की तैयारी
करने वाले पति-पत्नी
श्राद्ध के हिसाब से
पकवान तैयार नहीं कर सकते।
ऐसे में अपने पूर्वजों
के श्राद्ध के लिए पूर्व
संध्या पर मैसेज या
कॉल कर जो पकवान
तैयार करवाने होते हैं उनका
ऑर्डर कर देते हैँ।
ऐसे घरों में सुबह
सात बजे होम डिलीवरी
दी जाती है।
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