प्रति वर्ष सावन महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन नागपंचममी मनाई जाती
है। वराह पुराण में इस उत्सव के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए बताया गया है
कि आज के ही दिन सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने अपने प्रसाद से शेषनाग को विभूषित
किया था। शिवजी सर्पों की माला पहनते हैं, विष्णु भगवान शेषनाग पर शयन करते
हैं। नागपंचमी के दिन नाग देवता की पूजा की जाती है। माना जाता है कि इस
दिन सांपों की पूजा करने से नाग देवता प्रसन्न होते है।
महाभारत की
कथाओं से पता चलता है कि नाग भारत की एक जाति थी जिसका आर्यों से संघर्ष
हुआ करता था। आस्तीक ऋषि ने आर्यों और नागों के बीच सद्भाव उत्पन्न करने का
बहुत प्रयत्न किया। वे अपने कार्य में सफल भी हुए। दोनों एक-दूसरे के
प्रेम सूत्र में बंध गए। यहां तक कि वैवाहिक संबंध भी होने लगे। इस प्रकार
अंतर्जातीय संघर्ष समाप्त हो गया। सर्पभय से मुक्ति के लिए आस्तीक का नाम
अब भी लिया जाता है।
सर्पासर्प भद्रं ते दूर गच्छ महाविष। जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीक वचन समर।।
सर्प
मंत्रों से विशेष, आस्तीक के नाम का प्राय: प्रयोग करते हैं। इससे यह भी
संकेत मिलता है कि नाग जाति और सर्प वाचक नाग में भी पारस्परिक संबंध है।
यह भी प्रसिद्ध है कि पाणिनी व्याकरण के महाभाष्यकार पतंजलि शेषनाग के
अवतार थे। वाराणसी में एक नागकूप है जहां अब भी नाग पंचमी के दिन वैयाकरण
विद्वानों में शास्त्रार्थ की परम्परा है।
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वर्षा ऋतु में नाग
पंचमी- वर्षा ऋतु में नाग पंचमी मनाने के पीछे भी ठोस कारण हैं। दरअसल,
बरसात में बिलों में पानी भर जाने से सांप बाहर आ जाते हैं। वे आश्रय की
खोज में रिहायशी इलाकों, सडक़ों, खेतों, बाग-बगीचों और झुरमुटों में आकर छिप
जाते हैं। ऐसे में हम सब उन्हें देख कर भयभीत होते हैं। हालांकि सच यह है
कि मनुष्य जितना सांपों से डरता है, उतना ही वे भी मनुष्य से डरते हैं।
बिना कष्ट पाए या छेडखानी के वे आक्रमण नहीं करते। ऐसे में वे हमें कोई
नुक्सान न पहुंचाएं, इसके लिए उनकी पूजा करके प्रसन्न करने की प्रथा
स्वाभाविक है।
नाग पूजा की परम्परा- नाग पूजा हमारे देश में
प्राचीन काल से प्रचलित है। वराह पुराण में इस उत्सव के इतिहास पर प्रकाश
डालते हुए बताया गया है कि आज के ही दिन सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने अपने
प्रसाद से शेषनाग को विभूषित किया था। इनके द्वारा पृथ्वी धारण रूप में
अमूल्य सेवा करने के अतिरिक्त नाग जाति के और भी महत्वपूर्ण कार्य हैं।
समुद्र मंथन के समय वासुकि नाग की रस्सी बनाई गई थी। यही कारण है कि आदि
ग्रंथ वेदों में भी नागों को नमस्कार किया गया है। यजुर्वेद में लिखा है
नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनु येन्तरिक्षे। श्ये दिवि तेभ्य: सर्पेभ्यो नम:।।
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अग्नि पुराण में नागों के 80 कुलों का उल्लेख है। उनमें 9 नाग प्रमुख हैं। इनके नाम के स्मरण का भी निर्देश है:-
अनंत वासुकि शेष पद्मनाभ च कंबलम। शंखपाल धृतराष्ट्र तक्षक कालिया यथा।।
एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम। सायंकाले पठेन्नित्य प्रात:काले विशेषम:।।
नाग
पूजा : नागों के प्रति सम्मान के प्रमाण अनेक स्थानों पर प्राप्त हुए हैं।
दक्षिण भारत में नाग की एक अत्यंत प्राचीन विशाल मूर्त हैै। अजंता की
गुफाओं में भी नागपूजा के चित्र बने हुए हैं। मालाबार में नागों के लिए कुछ
भूमि छोड़ी गई है जिसे ‘नाग वन’ कहते हैं। भारत के पूर्वांचल में नागालैंड
के नागा लोग तोअपने को नागों की संतान कहते हैं। प्राचीन ग्रंथों में नाग
लोक का विवरण है। प्राचीन काल से ही यूनान और मिस्र के मंदिरों में सर्प
पाले जाते हैं। चीन की राजधानी बीजिंग में भी एक नाग मंदिर है। नार्वे,
स्वीडन और अफ्रीका के कई देशों में सर्प पूजन प्रचलित है।
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