जानें, कुयोगों में जन्मे बालक का जन्म किस तरह अशुभ सूचक है

www.khaskhabar.com | Published : मंगलवार, 03 अक्टूबर 2017, 11:13 AM (IST)

जनन शांति ज्योतिष, फलित ज्योतिष एवं धर्म शास्त्र के संयोग से बना एक उलझनपूर्ण परिच्छेद है। इस विषय में अनेक ग्रंथों में विस्तारपूर्वक जानकारी प्राप्त होती है। प्रारंभ में समाज के बहुतायत लोगों की जनन शांति में रूचि नहीं रहती। लेकिन जब संतति में कोई बिगाड या विकृति होती है तब ज्योतिषी की सलाह ली जाती है। ज्योतिषी सर्वप्रथम तत्कालीन ग्रहों की इष्टता-निष्टता देखकर उसमें कोई त्रुटि न पाने पर जन्मतिथि जांचता है। उसमें भी कोई दोष न मिलने पर वह जनन शांति को दोष बताता है।

कृष्ण पक्ष चतुर्दशी, अमावस्या, क्षयतिथि, अश्विनी नक्षत्र की पहली घटी (48 मिनट), पुष्य नक्षत्र का दूसरा एवं तीसरा चरण आश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा का तीसरा चरण, रेवती नक्षत्र की आखिरी दो घटी (48 मिनट), व्यतीपात, वैधृति, भद्रा योग तथा ग्रहण काल इत्यादि कुयोगों में जन्मी संतति की जनन शांति आवश्यक होती है। अनेक ग्रंथों में इन कुयोंगों में जन्मी बालक को विभिन्न कष्ट होने तथा माता-पिता पर घोर विपत्ति आने का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। इसके अलावा अनेक कुयोगों में जन्मे बालक का जन्म किस तरह अशुभ सूचक है, इसका भी उल्लेख हुआ है।

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विविध स्तरों पर गंभीर अध्ययन-मनन करने से यह बात ध्यान में आती है कि जनन शांति के चंगुल से सही-सलामत छूटने वाले बालकों की संख्या सिर्फ 8-10 प्रतिशत ही है। जो बालक इससे पार हो गए हैं, वे सभी अच्छा जीवन जी रहे हैं- यह बात भी नहीं है। उनके हिस्से में भी संकट और कष्ट आते हैं। इसका कारण पाप ग्रह होते है। लेकिन शास्त्रोक्त विधि द्वारा शांति करवाने के बाद भी बालक को शांति का फल नहीं मिलता। ग्रहस्थिति उत्कृष्ट होने तथा शांति दोष होने पर भी जीवन क्रम बिगडा रहता है।

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कुछ ज्योतिर्विदों की राय में दुष्टकाल का परिणाम केवल एक ही वर्ष रहता है तो फिर आश्लेषा नक्षत्र के अंतिम चरणों में जन्मी कन्या अपनी सास का नाश किस तरह कर सकती है क्योंकि बहू के आने तक तो कई वर्ष बीत चुके होते हैं। समाज में ऎसे कई उदाहरण देखने में आते है कि आश्लेषा नक्षत्र के आखिरी तीन चरणों में जन्मी अनेक कन्याओं की सांस अंत तक ह्रष्ट-पुष्ट रहत हैं। ऎसी स्थिति में जन्म-समय गलत होने की दलील दी जाती है। परंतु अगर सही जन्म-समय लिखा हो तो फिर अलग-अलग प्रकार की कुंडलियां बनाने को कहा जाता है। यदि आश्लेषा नक्षत्र के दोष के बावजूद सास जीवित रहे तो उसके ग्रह अति बलवान होने की बात बताई जाती हैं। कुल मिलाकर यह बात सभी नक्षत्रों एवं योगों की है। संक्षेप में जनन शांति का परिणाम एक गूढ प्रकार है।

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वैसे पापभीरू, भयग्रस्त एवं कम जानकारी रखने वाले व्यक्ति जनन शांति अवश्य करवा लेते हैं। लेकिन जनन शांति से बालक को संकटों से छुटकारा मिल जाएगा, इस बात की कोई गारंटी नहीं दी जाती। कष्ट दूर न होने और शांति का अनुकूल परिणाम न मिलने पर शांति में दोष बताया जाता है और पुन: जनन शांति करने को कहा जाता है। ऎसी जनन शांति एक पहेली है। उसमें से विद्वान आदमी भी बाहर नहीं निकल पाते। ऎसे समय निश्चित रूप से क्या करें, यह यक्षप्रश्न है। यदि किसी भी सलाह लें तो वह निरपेक्ष होगा, ऎसी स्थिति कम संभव होती है।

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कारण-सलाह देने वाले के संबंध शांति करने वाले पुरोहित या मंत्र-तंत्र करने वाले देवऋषि के साथ होने वाले के संबंध शांति करने वाले पुरोहित या मंत्र-तंत्र करने वाले देवऋषि के साथ होने की संभावना रहती है। परंतु यही स्थिति धर्म शास्त्र के प्रति श्रद्वा नष्ट होने का कारण बन सकता है। इसलिए समाज को चाहिए कि वह थोडा अंतर्मुख बनकर विचार करें।

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जनन शांति का असर वास्तव में होता है- यदि यह बात मान ली जाए तो किसी बालक की जनन शांति बचपन में न होने पर प्रौढ अवस्था में करवाना हास्यास्पद है। यदि किसी बालक को बचपन में बालघुट्टी या जन्मघुट्टी न दी गई हो तो उसकी भरपाई करने के उद्देश्य से उसे उम्र के 25वें वर्ष बालघुट्टी देना तर्क विसंगत होगा। इसी तरह प्रौढावस्था में जनन शांति करवाना भी बचपना ही होगा। क्या मूल में जनन शांति का दोष सचमूच रहता है। यदि हां तो उसका प्रभाव सभी लोगों पर अलग-अलग रहता है अथवा एक समान ही रहता है-इस विषय में निरीक्षणात्मक, तुलनात्मक तथा संशोधनात्मक अध्ययन आवश्यक है।

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इसके अलावा यदि बालक के जीवन पर जनन का दुष्प्रभाव सिद्ध हो जाए तो इसे शांति कर्म से टाला जा सकता है या नहीं, इस भी पूर्ण विचार करना आवश्यक होगा। अपने अनेक जन्मों के संचित एवं प्रारब्ध के सहारे जन्म लेने वाले बालक का क्रियमाण जब इहजन्म में आकार लेता है तब उसके ऊपर स्वयं के प्रारब्ध का, माता-पिता के पूर्व कर्मो एवं संस्कारों का, आस-पास के सामाजिक वातावरण तथा यार-दोस्तों के सहचर्य का संकलित परिणाम पडता है।

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कई बार ग्रहों, उनकी दृष्टि एवं स्थानों के परम्पर योग-प्रतियोग का परिणाम भी गौण होता है। कारण-ग्रहों की दिशा तथा दशा बदलने की सामथ्र्य जिस शक्ति में होता है,उसका सहयोग गुरू या इष्टदेवता के रूप में ले लिया जाता है। फलत: दोष का नाश होकर मनुष्य उत्साही बनता है। ऎसे वक्त जनन शांति करने की जरूरत नहीं रहती है। इससे मन में अस्थिर भावना जागती है।

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