उदयपुर। मेवाड़ में जनजाति समुदाय द्वारा खेली जाने वाली गंवरी में एक ऐतिहासिक बदलाव किया गया है। अब इस गंवरी को खेलने वाले लोगो ने ‘पहरावनी’ यानी कपड़े लेने की परंपरा को बंद कर दिया है। पहले जिस गांव के लोग गंवरी को अपने गांव में खेलने का न्योता देते थे, उस गांव के लोग गंवरी के कलाकारों को पहरावनी के रूप में कपड़े भेंट करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। सदियों से चली आ रही परंपरा में बदलाव भी अब नजर आने लगा है।
भील समुदाय ने सदियों से चली आ रही ‘पेहरावणी’ की परंपरा को आर्थिक बोझ मानते हुए बंद कर दिया है। समुदाय के इस निर्णय से गवरी विसर्जन पर जहां नाते-रिश्तेदार को राहत मिलेगी, वहीं शादी-विवाह व अन्य सामाजिक अवसरों पर भी बहन-बेटियों पर पडऩे वाला बोझ भी कम हो जाएगा। साथ ही ऐसे अवसरों पर मदिरापान पर खर्च करने को भी सामाजिक बुराई मानकर इस पर लगाम कसने की तैयारी है। यह निर्णय राजस्थान आदिवासी संघ की बुधवार को नांदेश्वर उपशाखा की बैठक में किया गया। बैठक में जिलाध्यक्ष धनराज अहारी, मठ अध्यक्ष देवीलाल भगोरा, सचिव मगनलाल मीणा सहित 27 गांवों के लोग, पंच, सरपंच, मुखिया आदि मौजूद थे। बैठक में सभी ने गवरी, शादी, नवरात्र, गंगोज पर आने वाली समस्त तरह की पहरावणी व लड्डू पर रोक लगा दी। समाज ने इस रस्म के अदायगी के लिए लिफाफे भराने पर निर्णय लिया, जिसमें अपनी श्रद्धानुसार कोई भी कितनी भी राशि रख सकेगा। इस सामाजिक अवसर पर शराब पीने व पिलाने पर भी प्रतिबंध लगाया गया है। नियमों का उल्लंघन करने पर समाज स्तर पर दंड का निर्णय लिया गया है।
भगवान शिव-पार्वती की आराधना का लोकनृत्य है गंवरी
गंवरी भगवान शिव-पार्वती की आराधना का लोकनृत्य है। ठंडी राखी से इसकी शुरुआत होती है, जो 40 दिन तक अलग-अलग गांवों में रमी जाती है। इसमें भील समुदाय के लोग छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से विभिन्न स्वांग रचते हुए सामाजिक संदेश देते हैं। आसोज की नवमी से इसका समापन शुरू होता है।
मेवाड़ में कुल 50 गंवरी
मेवाड़ में आदिवासियों की कुल 50 गंवरी है। नांदेश्वर मठ की आठ गंवरियां हैं। इनमें पई, कुम्हारियाखेड़, पीपलवास, छोटी उंदरी, पिपलिया, कोडिय़ात, राताखेत व करनाली शामिल हैं। इन आठों गांव के ग्रामीण अलग-अलग गांवों में गंवरी रमते हैं। विसर्जन के दौरान बहन-बेटियां परिवार के लिए पहरावणी स्वरूप कपड़े व लड्डू लेकर आती हैं। इस पर करीब पांच से आठ हजार का खर्च आता है।
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