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सिनेमा-माध्यम मनोरंजन का लेकिन सामाजिक सरोकार भी जरूरी : प्रतीक

जयपुर। हिंदी सिनेमा के उभरते हुए लेखक, निर्देशक प्रतीक शर्मा इन दिनों अपनी पहली हिंदी फिल्म गुटरूं गुटरगूं को लेकर शहर में हैं। एक तरफ सिनेमा को पैसा बनाने की मशीन माना जाता है और इससे जुड़े सितारों को दुनिया पलकों पे रखती है, दूसरी तरफ इसी सिनेमा का इस्तेमाल समय-समय पर सामाजिक मुद्दों को उठाने के लिए भी होता रहा है। क्या सिनेमा बदलाव का अस्त्र बन सकता है? क्या गंभीर सिनेमा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है? किसी फिल्म मेकर को सोसायटी की जिम्मेदारी लेनी चाहिए? इन तमाम विषयों पर प्रतीक शर्मा से विशेष बातचीत हुई।

सवाल :
आपकी फिल्म गुटरूं गुटरगूं किस बारे में है और इसका नाम आपने ये ही क्यों चुना।
जवाब : देखिये मैंने कई महीनों तक विचार करने के बाद ये नाम चुना। इस फिल्म की एक्ट्रेस अस्मिता शर्मा जो मेरी धर्मपत्नी भी हैं, उन्होंने ये नाम सुझाया क्योंकि गांव में स्त्रियां एक-दूसरे से जब मिलती हैं तो कुछ ऐसे विषय पर बात करती हैं, जो उन्हें अशोभनीय लगता है। जैसे घर में कोई बहू अपनी सास से कहे कि उसे टॉयलेट जाना है और वो भी घर से बाहर क्योंकि घर में तो शौचालय है नहीं और अपनी शिकायत मर्दों से कहने में उन्हें डर लगता है तो वो एक-दूसरे को कानों ही कानों में फुसफुसा कर अपनी मन की भड़ास निकाल लेती हैं। इसी वार्तालाप का इसी शिकायत का नाम है गुटरूं गुटरगूं, लेकिन हमारी फिल्म की नायिका इस गुटरगूं के चक्कर में नहीं पड़ती, सो सबसे लोहा लेती है, अपनी समस्या खुद सुलझाती है और अंत में उसकी जीत होती है।

सवाल :
एक निर्देशक के तौर पे आपकी क्या जिम्मेदारी है।
जवाब : एक निर्देशक के तौर पर मेरी वही जिम्मेदारी है जो एक पिता के तौर पे मेरे बेटे के लिए मेरी है। मेरे हर कदम को, हर वाक्य को वो देखता है याद रखता है और आगे चलकर अपनी जिन्दगी में उसका इस्तेमाल करेगा, तो मैं उसे क्या सिखाना चाहता हूं। उसे मैं कैसा इंसान बनाना चाहता हूं। यही सोच एक निर्देशक की होती है या होनी चाहिए कि वह अपने दर्शकों को क्या देना चाहता है। मनोरंजन और हंसना हंसाना फूहड़ भी हो सकता है और सभ्य भी। आखिर रक्त विहीन क्रांतियां भी हुई हैं और इसी दुनिया में बेकार ही लाखों लोगों का खून भी बहा है। तो सवाल ये है कि जिसके हाथ में लगाम है वो कैसा इंसान है। मैं अपने दर्शकों के प्रति उतना ही जिम्मेदार हूं, जितना अपने बेटे के लिए एक पिता की तरह।

सवाल :
सिनेमा के बदलते स्वरूप के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे।
जवाब : सिनेमा की पूरी यात्रा पर नजर डालें तो साफ पता चलता है कि हर दशक के साथ न सिर्फ सिनेमा का स्वरूप बदलता है, बल्कि तेवर और सरोकार भी बदलते हैं। शुरू के दिनों में सिनेमा में पैसा कम और समय ज्यादा लगता था। अब पैसा ज्यादा और समय कम लगता है। बुनियादी फर्क तो ये है, इसकी वजह से इसके कंटेट और सामाजिक सरोकारों को पीछे धकेल दिया गया। हमारी फिल्मों में ग्रामीण कम दिखाई देते हैं। शहरी चमक दमक और फंतासी ज्यादा दिखाई देती है। वैश्वीकरण के बाद सिनेमा पर इन दिनों औद्योगिक घरानों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है, जो इस माध्यम को कमाऊ फैक्ट्री में तब्दील कर रहा है। बाजारवाद के हावी होने की वजह से फिल्मों की क्वालिटी खराब हुई है। ये बात सभी जानते हैं और मानते हैं।

सवाल :
अप किसी बड़े फिल्म स्टार के साथ काम करें तो बाजारवाद तो हावी आप पर भी हो जाएगा?
जवाब : देखिये इंसान की बुनियादी फितरत नहीं बदलती। वो जैसा होता है वैसा ही उसकी फिल्मों में दिखता है। या कोई भी कला ले लें। कलाकार का व्यक्तित्व उसके काम में दिखाई देता ही है। ऐसे बहुत सारे फिल्म मेकर हैं जिनसे बिना मिले आप उनके बारे में समझ सकते हैं कि वो असल में कैसा इंसान होगा। या रहा होगा। राजू हिरानी ने अपना सरोकार नहीं छोड़ा। हालांकि एक दो दृश्य में बाजारवाद होता है, लेकिन उनकी फिल्म बाजार के साथ सामाजिक सरोकार का ध्यान भी रखती है। संजय भंसाली को डेकोरेशन और भव्यता पसंद है। और इसीलिए वो इसी तरह के विषय चुनते हैं, जहां वो कुछ भव्य कर सकें तो इसी तरह मेरी भी कुछ आदतें हैं, कन्विक्शन है जिसे लेकर में सिनेमा में आगे बढूंगा भले कोई स्टार उसमें हो या न हो।


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Web Title-Cinema-Through entertainment But on social issues important : prateek Sharma
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