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आठ साल के अंतराल के बाद अपनी सफल सीरीज ‘सरकार’ का
तीसरा भाग लेकर हाजिर हुए निर्देशक रामगोपाल वर्मा ने अमिताभ बच्चन के
किरदार को जो पैनी धार दी, वह तारीफ के काबिल है। कथानक के अनुरूप उन्होंने
नए अदाकारों की जो भीड जुटाई वह भी दमदार है लेकिन फिल्म की कहानी ‘पस्त’
है। कमजोर कहानी के चलते बेहतरीन अदाकारों से सजी यह फिल्म दर्शकों को अपने
साथ जोडने में सफल नहीं हो पाती है। तकनीकी पहलुओं से फिल्म सशक्त है।
रामगोपाल वर्मा ने फिल्म का कथानक पिछली फिल्मों की तरह रखा होता तो
निश्चित रूप से यह फिल्म अविस्मरणीय फिल्मों में शुमार होती। उन्होंने इस
बार सुभाष नागरे को एक कमजोर इंसान के रूप में पेश है और यही उनकी असफलता
की सबसे बडी वजह है। एक समय था कि सरकार के सामने किसी की बोलने की हिम्मत
नहीं होती थी वहीं अब उसी सरकार को उसके घर में लोग धमकी देकर चले जाते
हैं। इसके साथ ही कथानक में भी कुछ नयापन नहीं है।
यह फिल्म भी ‘सरकार’ और
‘सरकार राज’ की तरह एक राजनीतिक ड्रामा है, जिसमें गरीब लोगों का एक मसीहा
पूरे सिस्टम से अकेला टक्कर ले रहा है। जहां पहले की दो फिल्मों में उसके
साथ उसके बेटे थे, वहीं इस बार उसके साथ उसका पोता है। रामगोपाल वर्मा ने
अमित साध को शिवाजी नागरे के रूप में कथानक में जोडा हैै, जो कि सरकार के
बडे बेटे विष्णु का बेटा है। फिल्म की शुरूआत उसी तरह से होती है जैसी कि
सरकार सीरीज की पिछली दो फिल्मों में हुई थी। एक बिजनेसमैन अपने एक
प्रोजेक्ट के लिए सरकार के पास आता है और उनके सामने अपने काम करने के बदले
एक बडी रकम की पेशकश करता है।
सरकार जानते हैं कि इससे गरीबों को नुकसान
होगा और वो काम करने से इंकार कर देते हैं। साथ ही यह भी कह देते हैं कि न
तो यह काम वो करेंगे और न ही वो किसी को यह करने देंगे। इसके बाद शुरू होता
है सत्ता का वो खूनी खेल जिसमें आप यह समझ नहीं पायेंगे कि किस पर भरोसा
करें और किस पर नहीं ?
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