न्याय की उम्मीद खो चुका नायक पुलिस अधिकारी से कहता है, ‘आप की आंखें खुली रहेंगी, लेकिन आप देख नहीं पाएंगे। आप के कान खुले होंगे, पर आप सुन नहीं पाएंगे। आप का मुंह खुला रहेगा, पर आप कुछ बोल नहीं पाएंगे। सबसे बडी बात सर, आप सब कुछ समझेंगे, पर किसी को समझा नहीं पाएंगे।’ मध्यान्तर पूर्व आया यह संवाद पूरी फिल्म की जान है, जो दर्शकों में भी उसी तरह की जिज्ञासा बढाता है जैसी कि पुलिस अधिकारी नरेन्द्र झा की बढती है। यह फिल्म की सफलता का प्रतीक है। चिर-परिचित कथानक पर फिल्म का निर्माण करना और फिर उसे एक असफल निर्देशक से निर्देशित करवाना अपने आप में एक बडी चुनौती है, जिसे राकेश रोशन ने बखूबी उठाया। परिणामस्वरूप असफल निर्देशक द्वारा एक सफल फिल्म दर्शकों के सामने है। आश्चर्य होता है संजय गुप्ता की निर्देशकीय क्षमता पर, जिसे उन्होंने स्वयं की फिल्मों में क्यों नहीं दर्शाया। ‘काबिल’ पूरी तरह से लेखक, निर्देशक और अभिनेता की फिल्म है, जो कहीं भी दर्शकों को बोरियत का अहसास नहीं करवाती अपितु मध्यान्तर पूर्व कातिल द्वारा पुलिस अधिकारी को दी गई चुनौती उसकी जिज्ञासा को बढाती है कि आखिरकार एक अंधा व्यक्ति किस तरह से अपना ‘बदला’ लेगा।
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