प्रारंभ में बच्चा अपने बड़ों के उदाहरण से ही सीखता है। विशेषकर उनकी बातचीत का उस पर बहुत प्रभाव पड़ता है। उसके मनोवेग, क्रियाएँ तथा भाषा पर बड़ों की बातचीत अपनी छाप डालती है। उनकी बोली तोतली व मीठी होती है। लेकिन धीरे-धीरे उस शुद्ध भाषा का प्रयोग करता है जिसमें उसका सारा समाज बोलता है। अपने माँ-बाप परिवार के परिजनों से ही वह बोली सीखता है । जैसे वे सब बोलते हैं उसी प्रकार वह भी बोलने लगता है। अपने भाषा ज्ञान का वह सही प्रयोग कर सके, उसे उचित शब्दों में अपने विचार प्रकट करने आ सके, दूसरों की बात का सही अर्थ लगा सके इसके लिए यह आवश्यक है कि उसके साथ सही ढंग से ठीक शब्दों में बातचीत की जाए। बच्चों में उस अवस्था में तर्क बुद्धि का विकास नहीं होता। वह अपने से बड़ों की बात को ही सच मानते हैं । सुनी-सुनाई बात पर वे विश्वास करते हैं। वे ज्ञान उपलब्धि बड़ों की बातचीत से करते हैं। ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
हम बच्चों को सिखाते हैं कि अपने बड़ों के अधिकार, विचार तथा मान मर्यादा का ध्यान रखकर उनसे किस प्रकार बातचीत करें। कोई बात उनके मुँह से ऐसी न निकले कि वे रुष्ट हो जाएँ या उनकी हरकत से बड़ों की भावना खराब हो जाए अथवा उनकी मानसिक चिंता बढ़ जाए। यह शिष्टाचार सिखाना ठीक ही है, परन्तु इस आशा के चाहने वाले कितने बड़े इस बात की चेष्टा करते हैं कि बच्चों से किस प्रकार बातचीत करनी चाहिए? कहीं ऐसा न हो कि हमारे व्यंग्य से उनका नन्हा-सा दिल चोट खा जाए या बढ़ावा पाकर वे इतने निडर हो जाएँ कि नियमों का उल्लंघन करने लगे और फिर बाद में उन्हें सिर चढ़ा, बदतमीज आदि की उपाधि मिले अथवा प्रशंसा सुनकर वे इतने सिरफिरे हो जाएँ कि दिनभर उन्हें स्वाभाविक रूप से शांत रखना कठिन हो जाए।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक अभिभावकों और संतानों के बीच भावनात्मक आदान-प्रदान- पृष्ठ-8 से लिया गया है।
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