अमरीश मनीष शुक्ल, इलाहाबाद। खास खबर आज आपको इलाहाबाद के एक ऐसे शहीद की दास्ताँ से रूबरू
करायेगा, जिसकी ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ जंग ने वह कर दिखाया था, जिसकी
जरुरत उस समय हर गुलाम हिंदुस्तानी को थी। मात्र 13 साल की उम्र में शहीद
होने वाले रमेश दत्त मालवीय का नाम आज भले ही गुमनामी में हो, लेकिन 12
अगस्त 1942 को यह नाम इलाहाबाद समेत पूरे देश गूंज गया था। ये भी पढ़ें - अपने राज्य - शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
शहीद रमेश दत्त मालवीय के भाई गणेश दत्त मालवीय से बातचीत व उनकी स्मृति पर
आधारित शहीद रमेश मालवीय कि अनसुनी कहानी आज हम आप के लिए लाये है। जिसे पढ़
और जानकर आप भी कह उठेंगे कि..."यूं ही नहीं मिली आज़ादी, कीमत उन्होंने भी
चुकाई जो आज़ाद हुए जिंदगी से.....!,
कुछ नाम कर गएऔर जिन्दा है हममे , पर कुछ गुमनाम है बंदगी से......!"
जब 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ। 9 अगस्त को महात्मा
गांधी के आह्वान पर पूरा देश भारत छोड़ो आंदोलन के साथ उठ खड़ा हुवा था तब
12 अगस्त की दोपहर में रमेश दत्त मालवीय भी इलाहाबाद में ब्रिटिश कोतवाली
पर अपने साथियों के संग धावा बोल चुके थे। अंग्रेजों की गोली ने इलाहाबाद के सबसे कम उम्र के रमेश को निशाना बनाया था। गोली रमेश की आंख
फाड़ते हुए शरीर को आज़ाद कर गई और इस शहादत ने इलाहाबादियों में आक्रोश के
साथ स्वराज का बिगुल फूंक दिया। एक आम बच्चे की इस शहादत ने लोगों के अंदर
से मौत का डर खत्म कर दिया और इसके साथ ही अंग्रेजी हुकूमत का भय भी
नेस्तनाबूत होता गया। एक और पूरे देश में लोग सड़क पर उतर रहे थे और यहाँ 13 साल के स्कूली छात्र रमेश की शहादत की खबर जैसे जैसे फैली लोगों में
क्रांति कर भाव हिलोर मरने लगा। आखिरकार फिर वह हुवा जो अंग्रेजों के आंखे फाड़ने वाला रहा। हजारों लोग रमेश की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए
इलाहाबाद पहुंचे। हर कोई अपने इस शहीद को आखिरी बार कंधा देना चाह रहा था।
लोग इससे पहले अंग्रेजों के भय से इस तरह किसी अंग्रेजी गोली के शिकार शहीद
के लिए बेख़ौफ़ होकर इस तरह हजारों की संख्या में सामने नहीं आते थे। क्योंकि
अंग्रेजी हुकूमत इन हालातों पर विशेष नज़र रखती थी। लोगों को गिरफ्तार कर
लिया करती थी।
9 अगस्त की सुबह होते ही पूरे इलाहाबाद में जगह-जगह अंग्रेज़ों का विरोध
शुरू हो गया था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी समेत तमाम शैक्षणिक संस्थाओं में पढ़ने वाले छात्र और नौजवान सभी सड़क पर निकल आये थे। आज ऐसा लग रहा था
कि जैसे हर किसी ने अंग्रेज़ी हुकूमत को दमन करने का प्रण कर लिया हो। 9
अगस्त को रात इलाहाबाद के वह क्रन्तिकारी जो अभी तक अंडरग्रॉउंड थे वह
भी अचानक से प्रकट होने लगे। 9 अगस्त की रात चौक इलाके के अहियापुर यानि
वर्तमान का मालवीय नगर मोहल्ला फिर से करनटिअरियो को टोली जुटी।
यहाँ के
राय नवल बहादुर की कोठी में 10 अगस्त को गुप्त मीटिंग हुई। तब तय हुआ कि ग्रैंड टैंक रोड के किनारे चौक कोतवाली में भरी मात्रा में हथियार
मौजूद था। अगर वो हथियार हमें मिल जाये तो अंग्रेजों को यहाँ से खदेड़ा जा
सकता है। क्योंकि यही सही मौका है। अंग्रेज आंदोलन की काट ढूढ़ने में लगे है।
वह विरोध प्रदर्शन को रोकने में मशगूल होंगे। ऐसे में उनपर हमला किया जा
सकता है। लेकिन समस्या यह थी की हथियारों से लैस पहरेदारों से कैसे निपटा
जायेगा। क्योकि थाने में भरी सुरक्षा व्यवस्था थी। क्रांतिकारियों ने गुलेल
के हमले से पहले कोतवाली के नज़दीक पहुंचने फिर लाठी से हमला कर लूट का
प्लान बनाया।
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