चरण स्पर्श और चरण वंदना भारतीय संस्कृति में सभ्यता और
सदाचार का प्रतीक माना जाता है। आत्मसमर्पण का यह भाव व्यक्ति आस्था और
श्रद्धा से प्रकट करता है। यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो चरण
स्पर्श की यह क्रिया व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक रूप से पुष्ट करती है।
यही कारण है कि गुरुओं, (अपने से वरिष्ठ) ब्राह्मणों और संत पुरुषों के
अंगूठे की पूजन परिपाटी प्राचीनकाल से चली आ रही है। इसी परंपरा का अनुसरण
करते हुए परवर्ती मंदिर मार्गी जैन धर्मावलंबियों में मूर्ति पूजा का यह
विधान प्रथम दक्षिण पैर के अंगूठे से पूजा आरंभ करते हैं और वहां से चंदन
लगाते हुए देव प्रतिमा के मस्तक तक पहुंचते हैं। ये भी पढ़ें - अपने राज्य - शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
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पुराण और चरणवंदना
पुराण कथाओं में गुरुजन और ब्राह्मणों की चरण रज की महिमा में कहा गया है,
यत्फलं कपिलादाने, कीर्तिक्यां ज्येष्ठ पुष्करे।
तत्फलं पाण्डवश्रेष्ठ विप्राणां (वराणां) पाद सेंचने॥
यानी जो फल कपिला नामक गाय के दान से प्राप्त होता है और जो कार्तिक व
ज्येष्ठ मासों में पुष्कर स्नान, दान, पुण्य आदि से मिलता है वह पुण्य फल
ब्राह्मण (वर के पाद प्रक्षालन एवं चरण वंदन से प्राप्त होता है।
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