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लोकसभा चुनाव-2014 हर मायने में यादगार रहेंगे। भारतीय जनता पार्टी व इसके गठबंधन सहयोगियों को भारी जीत मिली जबकि यूपीए व इसके सहयोगियों को बुरी पराजय झेलनी पडी है। कई पार्टियों की दुर्गति तो इतिहास में दर्ज हो गई है। सवा सौ साल पुरानी पार्टी कांग्रेस अर्द्धशतक से भी चूक गई है। उसे महज 44 सीटें नसीब हुई हैं। भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान हर सभा में यही कहा था कि कांग्रेस दहाई का आंकडा पार नहीं कर पाएगी। और वही हुआ। क्षेत्रीय दलों को देखें तो तमिलनाडु में राज कर चुकी डीएमके व यूपी में सत्ता संभाल चुकी बसपा अपने ही राज्यों में खाता तक नहीं खोल पाई। बंगाल में 30 साल तक राज करने वाली माकपा सिर्फ दो सीटें जीत पाई है, यूपी में समाजवादी पार्टी सिर्फ पांच सीटें जीत पाई, जिन पर मुलायम सिंह यादव और उनके परिजन चुनाव लडे थे। वैसे ये भी अचरज की ही बात है कि भाजपा की अन्य राज्यों में भारी सफलता के विपरीत पंजाब में भाजपा की सहयोगी पार्टी अकाली दल आधी सीटें भी नहीं जीत पाया और आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में वोटों का बंटवारा न हुआ होता तो अकाली दल को शायद एक सीट भी नहीं मिलती। अब हारी हुई पार्टियां विचार मंथन में जुटी हैं कि आखिर ऎसी हार हुई तो क्यूं। हारी हुई पार्टियों के बडे नेताओं ने त्यागपत्र देने की पेशकश की, लेकिन इनमें सिर्फ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का त्यागपत्र ही गंभीरता लिए हुए था। हर एक मानता है कि तकरीबन सारी पार्टियों में परिवारवाद का बोलबाला है। ऎसे में ये दल न तो ईमानदारी से आत्ममंथन कर सकते हैं और न आगे सुधार के कदम उठा सकते हैं। जदयू अन्य दलों से कुछ भिन्न है तो नीतीश कुमार का इस्तीफा मंजूर हुआ और बिहार को नया सीएम मिला वरना अन्य दलों में कोई भी हार का जिम्मा लेने को ही तैयार नहीं है, इस्तीफा तो दूर की बात है। कांग्रेस को चेहरा छिपाने के लिए सोनिया-राहुल के इस्तीफों की पेशकश को हाथोंहाथ ठुकराकर पुन: उन्हीं में आस्था जतानी पडी। कांग्रेस के पास और कोई चारा ही नहीं है। कांग्रेस को बुरी से बुरी स्थिति में भी कभी सौ से कम सीटें इससे पहले नहीं मिली थीं। कांग्रेस में भी नैतिक जिम्मेदारी लेने का सिलसिला चल गया है। समूची कांग्रेस कार्यकारिणी के इस्तीफा देने की बात भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी को बचाने की कोशिश ही है। राहुल गांधी ने पहले अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करने का बयान दिया था, लेकिन कांग्रेस तो यह नहीं मान सकती। असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने भी नैतिक जिम्मेदारी लेकर पद छोडने की बात कही है, इसी तरह कई राज्यों में पार्टी पदाधिकारी भी इस्तीफा देने के बयान दे चुके हैं। हो सकता है कि इनमें से कुछ लोग सचमुच चले जाएं, लेकिन आम तौर पर ऎसे इस्तीफे वापस लेने की उम्मीद में ही दिए जाते हैं। डीएमके के एमके स्टालिन ने इस्तीफे की बात की और अपने पिता एम करूणानिधि के कहने पर यह विचार त्याग दिया। करूणानिधि ने हार की जिम्मेदारी मीडिया पर डाल दी और पार्टी कार्यकर्ताओं ने मीडियाकर्मियों को ठोक डाला। सपा और बसपा में भी गाज दूसरी पंक्ति के कुछ नेताओं पर गिर सकती है। इसी तरह राजद में लालू प्रसाद यादव और पंजाब में बादल परिवार के नेतृत्व पर कोई सवाल उठाने वाला नहीं है। शीर्ष स्तर पर जिम्मेदारी तय होने जैसा ढांचा लगभग किसी पार्टी में नहीं है, इसलिए पार्टियों के अध्यक्ष या सुप्रीमो ही अपनी ओर से जिम्मेदारी तय करते हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां परिवार चलित नहीं हैं लेकिन वहां भी शीर्ष नेतृत्व इतना ताकतवर होता है कि उसे जिम्मेदार ठहराने के लिए किसी में दमखम नहीं दिखाता। अब देखना होगा कि कौन पार्टी हार से क्या सबक लेती है। अगर सबक नहीं लेती है तो उनका भविष्य अंधकारमय ही रहेगा क्योंकि अब हालात पहले से नहीं हैं। भाजपा की जीत, खासकर मोदी के तेवरों व राजनीतिक कौशल ने अब तक के सारे सियासी समीकरण व वोट गणित को गडबडा कर रख दिया है। अब वही दल पार पा सकेगा जिसमें आंतरिक लोकतंत्र होगा, कार्यकर्ताओं की मजबूत फौज होगी, देश को आगे ले जाने का विजन होगा।
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