पटना। बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र में प्राचीन काल से ‘सौराठ सभा’ नाम से दूल्हों का मेला लगता आया है, जो अब भी उसी रूप में प्रचलित है। हालांकि आज के समय में इस परंपरा और इसकी महत्ता को लेकर बहस जरूर तेज हो गई है। सौराठ सभा मधुबनी जिले के सौराठ नामक स्थान पर 22 बीघा जमीन पर लगती है। इसे ‘सभागाछी’ के रूप में भी जाना जाता है। सौराठ गुजरात के सौराष्ट्र से मिलता-जुलता नाम है। गुजरात के सौराष्ट्र की तरह यहां भी सोमनाथ मंदिर है, मगर उतना बड़ा नहीं। ये भी पढ़ें - अपने राज्य - शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
सौराठ और सौराष्ट्र में साम्य शोध का विषय है। मिथिलांचल क्षेत्र में मैथिल ब्राह्मण दूल्हों का यह मेला हर साल ज्येष्ठ या अषाढ़ महीने में सात से 11 दिनों तक लगता है, जिसमें कन्याओं के पिता योग्य वर को चुनकर अपने साथ ले जाते हैं और फिर चट मंगनी पट ब्याह वाली कहावत चरितार्थ होती है। इस सभा में योग्य वर अपने पिता और अन्य अभिभावकों के साथ आते हैं। कन्या पक्ष के लोग वरों और उनके परिजनों से बातचीत कर एक-दूसरे के परिवार, कुल-खानदान के बारे में पूरी जानकारी इक_ा करते हैं और दूल्हा पसंद आने पर रिश्ता तय कर लेते हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि करीब दो दशक पहले तक सौराठ सभा में अच्छी-खासी भीड़ दिखती थी, पर अब इसका आकर्षण कम होता दिख रहा है। उच्च शिक्षा प्राप्त वर इस हाट में बैठना पसंद नहीं करते। इस परंपरा का निर्वाह करने को आज का युवा वर्ग तैयार नहीं दिखता।
सौराठ सभा में पारंपरिक पंजीयकों (रजिस्ट्रार) की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यहां जो रिश्ता तय होता है, उसे मान्यता पंजीयक ही देते हैं। कोर्ट मैरिज में जिस तरह की भूमिका दंडाधिकारी की है, वही भूमिका इस सभा में पंजीयकों की होती है। पंजीयक के पास वर और कन्या पक्ष की वंशावली रहती है। वे दोनों तरफ की सात पीढिय़ों के उतेढ़ (विवाह का रिकॉर्ड) का मिलान करते हैं। दोनों पक्षों के उतेढ़ देखने पर जब पुष्टि हो जाती है कि दोनों परिवारों के बीच सात पीढिय़ों में इससे पहले कोई वैवाहिक संबंध नहीं हुआ है, तब पंजीयक कहते हैं कि ‘अधिकार होइए’! यानी पहले से रक्त संबंध नहीं है, इसलिए रिश्ता पक्का करने में कोई हर्ज नहीं।
सौराठ में शादियां तय करवाने वाले पंजीयक विश्वमोहन चंद्र मिश्र बताते हैं, मैथिल ब्राह्मणों ने 700 साल पहले (करीब सन् 1310) में यह प्रथा शुरू की थी, ताकि विवाह संबंध अच्छे कुलों के बीच तय हो सके। सन् 1971 में यहां करीब डेढ़ लाख लोग आए थे। 1991 में भी करीब पचास हजार लोग आए थे, पर अब आगंतुकों की संख्या काफी घट गई है।
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